मेरा परिचय ‘श्री उदय शंकर साह’

मेरा नाम श्री उदय शंकर साह, पिता जी स्वO श्री उमा शंकर साह ,दादा जी स्वO श्री राधा साह मूल निवासी सईसड़ जिला बक्सर बिहार ,लेकिन हमलोगो का परिवार ( रूपसागर , टुंडीगंज गूंजाडीह जिला बक्सर ) (पंचरूखी भागलपुर ) ( पुर्णिया ) (माल बाजार सिलीगुड़ी )( पटना )(असम ) ( उड़ीसा ) (लुधियाना पंजाब )जैसे स्थानो पर जा कर बस गये है, और वही अपना घर मकान बना सभी खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहें है,बड़े पिता जी स्वO श्री चंदू साह जी के 3 लड़के अभी भी गाँव मे रहते है, जो लोग बाहर है गाँव जाते है तो कहते है देश पर आऐ हुऐ है, हमलोगो के पुश्तैनी गाँव मे हम लोगो के परिजनो द्वारा बनाया हुआ शिव मंदिर है, जो बहुत ही जागृत मंदिर है सालो पंडित जी के द्वारा मंदिर मे पूजा होता है, मंदिर मे माँ सती का स्थान भी है ,हमलोगो के घर मे शादी होने पर मंदिर जाकर माता को साड़ी और प्रसाद( ककड़उर बूकवा )चढ़ाया जाता है, माता का स्थान मंदिर मे होने के वजह से सभी लोग उनका भी पूजन करते है, ऊपर शहर की संक्षिप्त जानकारी अपने परिजनो को खोजने के सहूलियत के लिऐ बताया गया है,
बान का वेबरा
हमारा मूलबान : चौधरी
ससुराल का बान : धोबाहा
ननिहाल का बान : बडहरिया के पाड़े

बान का अर्थ निवास तथा कुल भी होता है ब्याहूत जाती मे कुल 382 मूल बान या कुल है जिस कुल का जिस नगर या ग्राम आदि मे निवास स्थान था उस कुल का उसी नगर या ग्राम का नाम बान कहलाया जिसका विवरण ब्याहूत वंश के इतिहास मे दिया हुआ है संग्रहकर्ता मणि शंकर वियाहुत बक्सर है

कलवार जाती के सात कुड़ी मे / ब्याहूत, खरीदहा, जयसवाल, बाथम, जसवार, कलाल, और कलार आते है

कलवार के ईन विभिन्न उप जातियो मे लोग अलग अलग देवी देवताओ का पूजन करते है, जैसे जवाहरी शती मंदिर मे घर मे सती, बनी, (बनी सिर्फ शादियों मे आती है )अजब, शलाब, पांचो पीर शोखा,कारू वीर ,ब्रह्म, और बहुत से नमो के देवता देवी का पूजन गाँव जिला या राज्य के अनुसार होता है

बलभद्र मनवान सिर्फ ब्याहूत बंसी के यहा होता बलभद्र जी बहन सुभद्रा के शादी के समय रूठ जाते है ,उन्हे मनाने बन्धु बंधओ जाते है और जैसे किसी को मनाया जाता है एक व्यक्ति प्रश्न करता है, चार पांच लोग द्वारा उतर दिया जाता है जैसे, बलभद्र उठे, हाँ उठे, बलभद्र मुँह धोए, हा धोए ( दतवन से मुँह धोने का स्वांग करते हुऐ ) बलभद्र भोजन किये, हाँ किये (उन्हे खिलाने का स्वांग करते हुऐ )बलभद्र कुल्ला किये, हाँ किये ( कुल्ला कराने का स्वांग करते हुऐ )बलभद्र पान खाये, हाँ पान खाये ( पान खाने का स्वांग करते हुऐ ) विधि पूर्ण होने पर वही पांच लोग एक साथ खाना खाते है

ब्याहुत जाति के घर विवाह के समय पर जिस विधि विशेष के साथ श्री बलभद्र की पूजा की जाती है उसे देखने से उनके प्राचीन यदुवंशियों की संतान होने में तनिक भी संदेह नहीं रहता रेवती रमण कि यह पूजा प्रत्येक ब्याहुत बंसी के घर अनिवार्य है । कोई भी ब्याहुत बंसी जीविका के लिए कहीं भी जाकर क्यों ना बस जाए वह कितना भी दरिद्र क्यों ना हो जाए पर उसके घर विवाह के अवसर पर बलभद्र की पूजा अवश्य होगी । चाहे वह विवाह लड़के का हो या लड़की का ब्याहुत बंधुओं के यहां यह पूजा विवाह संबंधी अन्य आवश्यक रीतियों के तरह ही आवश्यक समझी जाती है । यह पूजा वर एवं कन्या दोनों के घर एक सी होती है तथा यह पूजा वर के घर से बारात जाने के पूर्व और कन्या के घर बरात आने से पूर्व की जाती है वर तथा कन्या की माता-पिता के अभाव में उनके कुल की कोई अन्य स्त्री जो उनकी अभिभविका हो अपने कुल तथा बिरादरी की अन्य सौभाग्यवती सुहागिन स्त्रियों के साथ मंगलमय गीतो तथा वादों की मधुर ध्वनि से विवाह उत्सव के आनंद को बढ़ाती हुई कुम्हार के घर जाकर बलभद्र भगवान की बनी मूर्ति लाती है बलभद्र की यह मूर्ति हल मुसल धनुष बाण आदि अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित यज्ञोंपवित युक्त और मस्तक के ऊपर राज छात्र धारण की हुई होती है । मूर्ति के सारे कलेवर में यव (जौ) खोसे रहते हैं । यह ( यव )जौ लोहमय के ऊपर निकले हुए नोकदार कांटो का स्मरण कराते हैं । प्राचीन काल में कांटेदार कवच इस अभिप्राय से बनाए जाते थे कि समर भूमि में युद्ध करते समय कोई भी शत्रु उसे पहनने वालों को पकड़ने का साहस न करें । रोहीडी नंदन के सब नाम में बलभद्र नाम ही मुख्य है प्रसिद्ध कोषकार अमर सिंह ने भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम के नाम बलभद्र हलधर प्रलब्ध बलदेव अच्युताग्रज रेवतीरमण राम कामपाल हलायुध नीलम्बर रोहिणेये संक्रषण सिरपणि कालिंदी भेदन आदि बताए हैं उनके सबसे प्रथम तथा प्रमुख बलभद्र नाम का ही उल्लेख है अतः ब्याहुत बंधुओं में यहां इस पूजन को बलभद्र भोज बलभद्र शांति बलभद्र मनावन आदि नामों से पुकारते हैं

वैश्य के गोत्र

)गोत्र सिर्फ ब्राह्मणों के होते थे क्षत्रिय वैश्य एवं शुद्र के नहीं । ब्राह्मण कोई जाति सूचक शब्द नहीं वरण वेद पढ़ाने वाले को ही ब्राह्मण कहा जाता था । ब्रह्म वेद स्त्द्धीतेय सः ब्राह्मण । जो वेद को पढता है वह ब्राह्मण है ब्रह्म जनाति ब्राम्हण: जो ब्रह्म को जाने वह ब्राह्मण है । रामायण उत्तर कांड 146 / 150

अतार्थ वैश्य भी ब्राह्मण तथा ब्राह्मण भी वैश्य हुआ करते थे गोत्र मुनियों के नाम हुआ करता था उस श्रृंखला में वैश्य कुल ऋषि (1) भलनन्दन (2)वत्स एवं (3) संकली मे से किन्ही एक नाम को अपना गोत्र बताना चाहिऐ । यह ध्यान देने की बात है कि जब यजमानो के घर पूजा-पाठ यज्ञोंपवित शादी ब्याह के अवसर पर गोत्र बताने की आवश्यकता पड़ती है तो जानकारी के अभाव में अथवा कुछ कहें तब तक पुरोहित ही उन्हे अपना गोत्र बतला देते हैं । प्रायः कश्यप गौतम एवं अत्री आदि का नाम ही सहजता से मुख पर आ जाता है जो गलत है पुरोहित द्वारा बताए गए नाम गोत्र को हम अपना अपना गोत्र स्वीकार कर लेते हैं । यह हमारी भारी भूल है यहां यह बताना आवश्यक है कि नंद के घर भगवान बलराम और कृष्ण दोनों भाइयों का नामाकरण संस्कार वसुदेव द्वारा भेजे गए यादवो के पुरोहित गर्ग जी के द्वारा संपन्न हुआ था

ब्याहूत कलवारों मे क्षत्रियत्व की निशानी

भगवान बलभद्र क्षत्रिय थे इस बात से सभी लोग भली-भांति अवगत हैं उनकी संतान ने आपतत्काल की स्थिति में अपने क्षत्रिय वृत्ति को त्याग वैश्यवृति को किस प्रकार अपनाया इसका विस्तृत वर्णन “मूल से क्षत्रिय कर्म से वैश्य “शीर्षक के अंतर्गत किया गया है । आज की ब्याहुत जाती जो कभी क्षत्रिय थी वैश्यवृत्ति अपना कर भले ही वैश्य बन गई है। मगर उनके संस्कार और नित्य प्रति के कर्मों में पूर्णरूपेण क्षत्रियत्व की निशानी झलकती है । इसे व्यक्त करने के लिए क्षत्रिय के शास्त्र विहित कर्मो पर प्रकाश डालना जरूरी है । भगवान श्री कृष्ण ने गीता के 18 में अध्याय में क्षत्रिय के जो कर्म बतलाए हैं वह इस प्रकार हैं

वीरता तेज ( प्रताप) धैर्य (विपत्ति काल में भी न घबराना ) चातूर्य्य युद्ध में पीठ ना दिखाना दान देना और ईश्वर भाव (मालिकपना) ये सब क्षत्रिय के स्वभाव सिद्ध कर्म है

इन गुणो में से कुछ ही को छोड़कर शेष सारे गुण ब्याहुत जाति में विद्यमान है । वैश्य वृत्ति अपना लेने के कारण इस जाति ने वीरता एवं तेज शौर्य तेजो के कर्म को छोड़ धैर्य चातूय्र्य दान एवं ईश्वर भाव के गुणों को अपने में संजोये रखा है अति प्राचीन काल से यह क्षत्रिय (आज की ब्याहुत जाती )आज तक वैश्य जीविका करते चले आये, पर इनका स्वभाव प्राकृत वैश्य जैसा नहीं हो सका वे जैसे-जैसे धनाढ्य होते जाते हैं वैसे-वैसे उनके चित्त की प्रवृत्ति वाणिज्य व्यापार की ओर झुकती जाती है पर वैश्य रूपधारी इन क्षत्रिय जातियों ( ब्याहुत जातियों) के पास जहां कुछ धन इकट्ठा हुआ कि इनका रुख भूमि पर आधिपत्य आर्थत जमीदारी की ओर फिरता है । उनको बनियोंटी नहीं भाती प्राकृत वैश्य स्वभाव से भीरु ,मधुर भाषी ,और सहिष्णु होते हैं । पर इन्हें यह गुण अच्छे नहीं लगते ।यह शान और दबदबा को ही अधिक पसंद करते हैं यही कारण है कि इनमें राजा जमींदार तालुके दार राजपुरुष तथा उच्च स्तर के सत्ताधारी व्यक्ति होते रहे हैं । इनके मुकाबले में प्राकृत वैश्य निस्तेज से मालूम पड़ते हैं ।

मनु अपनी स्मृति के दशम अध्याय में कहते हैं

प्रजा की रक्षा के लिए खड्गादि (कृपाणादि) शस्त्र और बाण आदि अस्त्र धारण करना क्षत्रिय की तथा वाणिज्य पशुपालन और खेती वैश्य की जीविकाये हैं । दान देना वेदों को पढ़ना और यज्ञ करना क्षत्रिय तथा वैश्य के धर्म कार्य हैं ।ये सभी जीविकाये अनापतकाल की है

मनु ने कहा है कि आपातकाल आ जाने पर किसी भी वर्ण को अपने से उच्च वर्ण की जीविका करने का अधिकार नहीं है तथा इस नियम का उल्लंघन करने वाले को राजा द्वारा सर्वस्व छीन देश से निकाल दिए जाने का दंड दिया जाना चाहिए अतः अपने से उच्च वर्ण की जीविका धारण करने का साहस कोई वर्ण नहीं करता था क्षत्रिय जाति इसका अपवाद कैसे हो सकती थी आपातकाल की स्थिति आ जाने पर क्षत्रियों (ब्याहुत जाती ) ने खेती वाणिज्य और महाजनी पेसा अपनाई ब्याहुत जाति जन्म से क्षत्रिय हैं । इस जाति के जन्म से वैश्य होने का कहीं भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है । मगर क्षत्रिय होने की अनेक प्रमाण प्रत्यक्ष है या ब्याहुत जाति द्वारिका निवासी यदि यदुवंशियों की संतान हैं इसके अतिरिक्त भी ब्याहुत जाति के पास ऐसे प्रतीक हैं जो उनके क्षत्रिय होने के सबल प्रमाण है । जिस प्रकार जनेऊ (यज्ञोंपवित) धारण करना हर क्षत्रिय के लिए आवश्यक है उसी प्रकार ब्याहुत जाति में भी जनेऊ धारण करने की प्रथा चली आ रही है वैसे यह लोग नियमित रूप में जनेऊ धारण नहीं करते मगर विवाह के पूर्व निश्चित रूप से बलभद्र प्रतिमा के चरणों में जनेऊ छुआ कर लड़के को पहना दिया जाता है यह काम शास्त्र अनुकूल पद्धति से किया जाता है ध्यान देने योग्य बातें यह है कि ब्याहुत जाति के घरों में हर मुख्य पर्व जैसे होली दशहरा श्रावणीघरी आदि अवसरों पर खड़क ( तलवार त्रिशूल अन्य शस्त्र )की पूजा होती है । यह प्रथा इनके यहां प्राचीन काल से चली आ रही है खड़गधारी की संतान ही खड़ग की पूजा कर सकती है ।खड़क धारण करना क्षत्रिय के शौर्य तेज की निशानी है । ये लोग खड़ग को अपने पूर्वज को अस्त्र मानते हैं कुल देवता की पूजा में खड़ग पूजा अनिवार्य मानी जाती है

ब्याहुत जाति में घोड़े की सवारी का प्रचलन अधिक पाया जाता है इनके पूर्वज रणक्षेत्र में घोड़े का प्रयोग करते थे क्षत्रियवृत्ति त्याग देने पर अब ये व्यवसाय हेतु सामान ढोने एवं सवारी के रूप में ही इनका प्रयोग करते हैं आज भी सुदूर गांव में ब्याहुत वंश के लोग घोड़े पालते हैं आज के यह बनी है कभी के क्षत्रिय ही हैं

ब्याहूत वंश दर्पण से
संकलन उदय शंकर साह, पटना सम्पर्क सूत्र : 6200963262

संपादक Manoj Kumar Shah

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