२१वीं शताब्दी के कलवार जाति Kalwar Caste
पद्मभूषण आचार्य डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है –
“हमारे गाँव में कलवार या प्राचीन “कल्यपाल” लोगों की वस्ती है जो एकदम भूल गये हैं कि उनके पूर्वज कभी राजपूत सेनिक थे ओर सेना में पिछले हिस्से में रहकर कल्यवर्त्त या ‘कलेऊ’ की रक्षा करते थे। न जाने किस जमाने में इन लोगों ने तराजू पकड़ी और अब पूरे “बनिया” हो गये हैं। “
पद्मभूषण आचार्य डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी
अशोक के फूल नामक पुस्तक में पद्मभूषण डा० हरिवंशराय बच्चन ने लिखा है :-
“मुट्ठीगंज (इलाहाबाद) नदियों की, नदियों की बस्ती होगी । अब भी बनिये यहाँ बड़ी संख्या में बसते हैं । उनके बाद शायद कलवार हैं । उनका पेशा मंदिरा बनाना-बेचना या बन्दरगाहों पर उतरने-चढ़ने वाले यात्री कलवरिया-हौली, मयखाना, मधुशाला की तलाश में रहते होंगे ही कभी हल्के मूड में सोचता हूँ कि इस भूमी पर मधुशाला की कल्पना अतीत की किसी कलवरिया के संस्कार से तो नहीं उठी थी । मिट्टी बड़ी रहस्मय होती है । मुमकिन है मेरा कयास गलत न हो । पहले कलवार अपने को कलवार ही लिखते थे, अगर नाम के आगे कुछ जोड़ते थे जब डॉ० काशी प्रसाद जायसवाल प्रसिद्ध हुए वह भी कलवार थे । तो पेशेवाला नामांश त्यागकर उन्होंने मूल वाला नामांश अपनाया-जायस से जायसवाल, जैसे जायस से जायसी । इस पर बहुत से कलवारों ने अपने को जायसवाल कहना शुरू किया । बाद को बहुतों ने गुप्त अपनाया । अब कुछ अपने को हैहय क्षत्रिय कहते हैं । हैहय क्षत्रिय स्कूल भी कभी मुट्ठीगंज में था ।“
पद्मभूषण डा० हरिवंशराय बच्चन
कलवार (Kalwar) कहने की प्रथा कैसे चली ?
कलवार (Kalwar) शब्द की व्युत्पत्ति इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि कलवार जाति के लो हैहय वंशी क्षत्रिय थे । लेकिन राज्य सत्ता नष्ट होने पर धनार्जन के लि आपातकाल में व्यापार व्यवसाय का आश्रय लेने के कारण वैश्य कहलाए कुछ लोगों की भ्रमपूर्ण धारणा है कि कलवार आदिकाल से मद्य व्यवसायी है किन्तु, मद्य व्यवसाय से इनका कोई प्राचीन सम्बन्ध प्रमाणित नहीं होता है कलवार जाति (Kalwar Caste) का इतिहास पुराण एवं प्राचीन इतिहास काल में गौरवपूर्ण था । विभिन्न प्रान्तों में प्रचलित धारणाओं एवं प्राचीन ग्रन्थों के अध्यय के अनुसार कलवार (Kalwar) शब्द के कई उद्गम बताये जाते हैं । उनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार है:-
१.कल्प पाल:-
मेदनी कोष में (कल्पपाल) शब्द का प्रयोग हुआ है । उसका न्यायाधिपति प्रजापति । कल्हण कृत राजतरंगिणी संस्कृत ग्रंथ में जो काश्मीर के प्राचीन महाराजाओं का इतिहास है, राज्यक्रम का वर्णन करते आचार्य ने करकोटि राज्य वंश के पश्चात कल्प पाल राजवंश का वर्णन किया है । कमल पाल के वंशज अपने आगे ‘वरमन‘ उपाधि का प्रयोग का प्रयोग करते हैं | वरमन की उपाधि केवल क्षत्रिय के लिए प्रचलित थी आज भी कलवार जाति के लोग इस उपाधि का प्रयोग करते हैं । कल्पपाल शब्द का ही अपभ्रंश कलवार शब्द है । इसलिए यह सिद्ध होता है कि कलवार वास्तव में क्षत्रिय हैं। संस्कृत व्युत्पत्ति से कलवार शब्द का भी अपना एक स्वतंत्र अर्थ है |
“यथा कलः सुन्दरः वारयस्य ।” जिनके दिन वाणिज्य व्यवहारादि द्वारा सुखमय रहते हों, वे कलवार कहलाए ।
२.कल्यपाल:-
प्रकाण्ड विद्वान शिक्षा शास्त्री पद्मभूषण डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी अपनी पुस्तक ‘अशोक के फूल’ में लिखा है कि कलवार (Kalwar)या प्राचीन कल्यपाल एकदम भूल गये हैं कि उनके पूर्वज कभी राजपूत सैनिक थे और सेना के पिछले भाग में रहकर कल्यवर्त्त या कलेउ की रक्षा करते थे । न जाने किस जन्म में उन्होंने तराजू पकड़ ली और अब पूरे बनिया हो गए हैं वे आगे फिर लिखते हैं कि “राजपूती सेना का वह अंश जो कलेवा की रक्षा करता था आगे चलकर कलवार (Kalwar) के रूप में बदल गया । राजपूतों के कलेवा में मादक द्रव्य भी होता था और आगे चलकर इसने कलवार (Kalwar) की सामाजिक मर्यादा घटा दी।
३. कालिन्दीपाल
श्री नारायण चन्द्र साहा की जाति विषयक खोज के अनुसार भी यह सिद्ध होता है कि कलवार उत्तम वर्ग के हैं और वे क्षत्रिय हैं । प्राचीन पण्चाल न प्रदेश की राजधानी कन्नौज में एक वर्धमान नामक जाति रहती थी । इस जाति के लोग क्षत्रिय थे, कन्नौज प्रदेश के अधीश्वर थे । इनकी पूज्य कुलदेवी गोवर्धन नाम से प्रसिद्ध थी । आज भी गोवर्धनी देवी के नाम से कन्नौज में एक देवी का विशाल मंदिर है । कुछ वर्धमानों ने कालिन्दी पार नर्थ करके दूसरे साम्राज्य पर अधिकार कर लिया । कन्नौज नरेश ने इन्हें जो कालिन्दी रक्षा का भार सौंप दिया । एक तट का भाग कन्नौज प्रदेश में था, इए दूसरा अधिकृत प्रदेश में शत्रुओं से कालिन्दी तट की रक्षा करना ही इनका मुख्य उद्देश्य था । कालिन्दी कूल पर निवास करने के कारण तथा तट की है रक्षा के कारण ही इनका नाम ‘कालिन्दी पाल’ हो गया । पाल शब्द विशेषाधिकार का बोधक होता है । यह पद क्षत्रिय को ही दिया जाता था । महमूद गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण करते समय जब कालिन्दी को पार करना चाहा तब कालिन्दी पाल जाति ने इसका प्रवल विरोध किया लेकिन। संख्या में कम होने के कारण गजनवी की सेना से लड़ते हुए वे परास्त हो गए | प्रानो के भय के कारण शेष कालिनदी पाल जंगलों में जा बसे जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने वहीं से अनाज का व्यवसाय आरम्भ कर दिया । कालिन्दी पाल शब्द का ही अपभ्रंश कलवार है।
४. कल (मशीन) वाला
भिस्टर रिजले के अनुसार कलवार शब्द ‘कलवाला’ का अपभ्रंश है जिसका अर्थ कल (मशीन) से काम करने वाला है । इसका मत है कि राज्यच्युत होने के पाश्चात कलवारों ने व्यापार करना शुरू किया । आर्थिक स्थिति सम्पन्न होने के कारण उनका काम कलों या मशीन द्वारा होता था | इन्होंने कलवारों के मद्य व्यवसायी होने का पूर्णतः खण्डन किया है । मिस्टर शेरिंग ने भी अपनी व्याख्या में मिस्टर रिजले का समर्थन किया है । इन्होनें कलवारों की गणना क्षत्रिय वंश में की है।
५. कलापाल
ब्याहुत कुलभूषण पंडित रजनीकांत शास्त्री वी० ए० बी० एल० ने कहा है कि बड़े-बड़े देशी और विदेशी विद्वानों ने अपने-अपने जाति विषयक ग्रंथों में इस जाति को ‘महाजन’ कहा है, इसमें गुप्त रहस्य अवश्य है | महाजन वह है जो सूद की रक्षा करे वह कलापाल (कलवार) है । सभी को विदित है कि यह साहुकारी महाजनी पेशावाली जाति है । इसकी जातिय जीविका यही है, न कि शराब बेचना ।
६. कीलालकार
ब्याहुत कुल भूषण डॉ० अनन्त प्रसाद शास्त्री ने वैदिक प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया है कि कलवार शब्द वेद के कीलालकारों का अपभ्रंश है । कलवार जाति (Kalwar Caste) के आदि पुरूषों ने प्रारंभिक वैदिक काल में कीलाल बनाने के कर्म के कारण अपने आपको ‘कीलालकार’ नाम की रूढ जाति के नाम से अपनी ख्याति कर ली । कीलालकार एक पवित्र वैदिक शब्द है | इसका प्रयोग वेदों में अनेक स्थान पर है और इसका अर्थ एक दिव्य पदार्थ से है ।वैदिक आचार्यों द्वारा इसका अर्थ अति उत्तम अन्न आदि खाद्य पदार्थों का दिया गया है ।इसी धार्मिक तथा पवित्र पदार्थ बनाने के कारण हमारे पूर्व पुरूष आर्य जनता द्वारा ” कीलालकार ” के नाम से पुकारे गए । वर्तमान समय की कलवार जाति वैदिक “कीलालकार” की ही संतान हैं । इसलिए वे कलवार कहे जाते हैं । जिस प्रकार कुम्भकार, सुवर्णकार और लौहकार आदि शब्द अपभ्रंश होकर क्रमशः कुम्हार, सोनार और लोहार हो गए हैं उसी प्रकार ‘कीलालकार’ भी बिगड़कर कलवार शब्द में परिणत हो गया। संकलन : ब्याहुत वंश दर्पण लेखक श्री परशुराम प्रसाद ब्याहुत |
आज 21 वीं शताब्दी और हम :
अब तक हमने अपनी पुरानी और प्राचीन मान्यता के कुछ अंश को जाना है | आइये अब हम वर्तमान की ओर मुड़ते हैं, आज हम अपने तीन मूल जाति के नामों से परिचित हैं | भारत के अलग अलग क्षेत्रों में इन नामों का अस्तित्व है पर ये एक जाति या समुदाय या यूँ कहें कि वंश ही हैं | तीनों मुख्य जातियाँ हैं कलवार, कलाल, कलार । इन तीनों मुख्य जातियों कई उपजातियां भी हुई हैं । इन उपजातियों की बहुत सारी उपाधियां हैं | (CENTRAL) 188
Kalwar, Kalal, Kalar
No. 12011/36/99- BCC dt. 4.4.2000 of Ministry of S.J. & E & No. 12011/1/2001 – BCC dt. 19.6.2003
लिंक: http://stscodisha.gov.in/Pdf/OBC_list.pdf
वंश या कुल की जानकारी लें तो समय काल के अनुसार कई वंशों का नाम हुआ | इनमें मुख्य “चन्द्र वंश” “यदु वंश” “हैहय वंश” “कलचुरी वंश” के नाम से हम जाने जाते हैं |
आराध्य कुल के देवता के रूप में हम “श्री सहस्रार्जुन जी” और “श्री बलभद्र जी” को मानते हैं।
हम या हमारा समाज जीवन उपार्जन के लिए क्या काम करता है जिस के आधार पर समाज का वर्गीकरण पुराने दिनों में ही हो पाता था पर यह अब सम्भव नहीं है | आज हमारा समाज धन उपार्जन के सभी क्षेत्रों अपना वर्चस्व बनाये हुए है | अब हमारा समाज कई तरह का व्यवसाय करता है, सरकारी या गैर सरकारी नौकरी करता है, आज हमारे सदस्य राजनीति में हैं, हम कृषि और देश की सीमा की रक्षा भी करते हैं |
आज की जरुरत
समाज को होना होगा संगठित
इतिहास हमारे वर्तमान को सुधरने और सुधारने का ज्ञान देता है, अपने इतिहास को हमें बिना भुलाए वर्तमान के साथ कदम मिला कर चलना है | राज्यस्तरीय या पूरे देश में फैले हुए समाजबंधुओं को हमें एक साथ- एक जुट में ले कर चलना है | बिना संगठन के उन्नति तो संभव नहीं है पर अत्यधिक संगठन से हम संगठित कम और अधिक बटते जायेंगे | अतः सम्पूर्ण भारत में कुछ ही संगठन द्वारा समाज सेवा हो तो यह बेहतर है |सहर को जिला , जिले को क्षेत्र या जोन, क्षेत्र को राज्य और राज्य को केंद्रीय संस्थान का स्वरुप देना होगा |
कलवार, कलाल, कलार आज हमारी तीन मुख्य जाति मानी जा रही है, जो की केंद्रीय सरकार से मान्यता प्राप्त भी हैं | इनको अपने साथ अपने परिचय के साथ जोड़ना होगा |