भुवनेश्वर, शेषनाथ राय। महाप्रभु श्री जगन्नाथ जी का नागार्जुन वेश अत्यंत ही दुर्लभ होता है। यह एक सामयिक एवं सामरिक वेश होता है। इसमें श्रीजगन्नाथ जी एवं भाई बलभद्र जी को नागा वेश में सजाया जाता है। कार्तिक महीने के पंचुक की मल तिथि में ही महाप्रभु का नागार्जुन वेश होता है। आम तौर पर पंचुक पांच दिन का होता है, मगर जिस साल पंचुक 6 दिन का होता है, उसी साल महाप्रभु का नागार्जुन वेश होता है। इस साल भी पंचुक 6 दिन का है ऐसे में महाप्रभु का यह दुर्लभ वेश हो रहा है।
जानकारी के मुताबिक 25 साल बाद 21वीं शताब्दी में यह पहला नागार्जुन वेश है। ऐसे में इस वेश को लेकर श्रद्धालुओं में भी उत्सुकता का माहौल है। हालांकि इस साल कोरोना प्रतिबंध के कारण प्रभु के इस दुर्लभ वेश का भक्त दर्शन नहीं कर पाएंगे।
नागार्जुन वेश के इतिहास पर यदि नजर डालें तो यह वेश काफी पुराना होने का अनुमान किया जा रहा है। इससे पहले 1993 एवं 1994 में महाप्रभु का नागार्जुन वेश हुआ था। 25 साल बाद 2020 में पुन: यह वेश हो रहा है। नागार्जुन वेश में महाप्रभु श्री जगन्नाथ एवं श्रीविग्रहों के लिए विशेष सामग्री का प्रयोग किया जाता है। विशेष रूप से अलंकार के साथ विभिन्न अस्त्र-शस्त्र से सज्जित किया जाता है।
श्रीभुज, श्रीपयर, नाकूआसी, कान का कुंडल, ओलमाल, बाघनखी माली, हरिड़ा माली, पद्ममाली, घागड़ा माली से सजाया जाता है। महाप्रभु जगन्नाथ एवं बलभद्र के मुंह में मूंछ एवं दाढ़ी लगाई जाती हैष बाघ की छाल वाला समान वस्त्रों दोना भाई परिधान करते हैं।
उसी तरह से इनके लिए सोल, कना, जरी तथा बेत से अस्त्र बनाया जाता है, जिसका परिधान करते हैं दोनों ठाकुर। भीतर सेवायत भीतरछ, तलुच्छ महापात्र, पुष्पालक इस वेश को तैयार करते हैं। सिंहारी, खुण्टिया तथा मेकाप सेवक वेश करते हैं चक्रकोट खुंटिया वेश की सामग्री मुहैया कराते हैं। नागार्जुन वेश को श्रीक्षेत्र लोक संस्कृति की प्रतिछवि माना जाता है।