यह बात श्री बलभद्र जी एवं श्री कृष्ण जी के बाल्य समय की है । यमुना के किनारे भंडारी बन में श्री कृष्ण बलराम और उनके साथी ग्वाले आपस में खेल खेल रहे थे यह खेल पिठईयान के रूप में जाना जाता है जिसमें हारने वाला बालक अपने पीठ पर जीतने वाले बालक को चढ़ा कर एक निश्चित दूरी पर ले जाता है। उनके खेल के बीच एक राक्षस जिसका नाम प्रलम्बापुर था, ग्वाला के भेष में आ जाता है और सजा के रूप में बलभद्र जी को अपने पीठ पर बैठा कर चल देता है। सुंदर और गौर वर्ण के बलराम जी उसके पीठ की सवारी आनंद पूर्वक करते रहते हैं, पर वह बलराम जी अपहरण कर मथुरा ले जाना चाहता है! खेल के नियम अनुसार यमुना के किनारे नशिचित दूरी पर वह रुकता नहीं है और भागते हुए अपने मूल राक्षसी रूप में आ जाता है। उसका रूप काले बादलों की तरह भयानक है ! उस रूप को देखकर बलराम जी को बहुत क्रोध आता है और वे अपनी बँधी हुई कठोर मुष्टिका से उसके मस्तक पर बहुत ही बेग से प्रहार करते हैं यह मुक्का प्रलम्बापुर के सर पर एक वज्र के प्रहार की तरह पड़ता है और उसका मस्तक फट के टुकड़ों में बट जाता है उसकी मृत्यु हो जाती है। गर्ग संहिता अनुसार उस राक्षस प्रलम्बापुर के शरीर से एक विशाल ज्योति निकलती है और बलरामजी में विलीन हो जाती है, इस आलौकिक दृश्य को देखकर देवता प्रशन्न हो जाते हैं और बलराम जी के ऊपर नंदनवन के फूलों की वर्षा करते हैं। बाल्यकाल में इस प्रलम्ब दैत्य के वध करने के कारन ही बलराम जी को उनके पराक्रम के अनुसार बलदेव नाम प्राप्त हुआ था।
दैत्य प्रलम्ब पूर्वजन्म में कौन था ?
और बलदेवजी के हाथ से उसकी मुक्ति क्यों हुई ?
यह कहानी इस प्रकार है : यक्षराज कुबेर ने भगवान
शिव की पूजा के लिये फुलवारी लगाई थी पर कोई न कोई उनका फूल तोड़ लेता था, कुपित हो कुबेर ने शापित किया कि जो उनका फूल तोड़ेगा वह
उनके शाप से भूतल पर असुर हो जाएगा !
राक्षस प्रलम्बासुर जो की पूर्व जन्म में गंधर्व विजय था अनजाने फूल तोड़ लेता है
और शापित हो भूतल पर असुर बन जाता है ! जब कुबेर जी को शापित विजय के विष्णु भक्त
और महात्मा होने की जानकारी मिलती है तो वे उसे माफ कर देतें हैं और वरदान देते
हुए कहतें हैं कि “द्वापर के अन्त में भाण्डीर-वन में यमुना के तटपर बलदेव जी के हाथ से तुम्हारी
मुक्ति होगी”
यही भगवान बलराम द्वारा राक्षस ‘प्रलम्बासुर का वध’ और उद्धार की कहानी है !