✍️ यह लेख समर्पित है भारत के उन गौरवों को, जिनकी विरासत आज भी हमें प्रेरित करती है।
“इतिहास सिर्फ़ अतीत नहीं, वो एक धरोहर है , जो आने वाली पीढ़ियों को रास्ता दिखाती है।”
कलचुरी वंश का परिचय
कलचुरी वंश को महिष्मती के प्रारंभिक कलचुरी भी कहा जाता है। यह वंश एक प्राचीन भारतीय आभीर राजवंश था, जिसने छठी से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक भारत के विभिन्न भागों पर शासन किया। उन्होंने महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के अनेक क्षेत्रों में अपना प्रभाव स्थापित किया। इस वंश का संबंध हैहय वंशी सहस्रअर्जुन से बताया गया है और उन्होंने कलचुरी संवत की भी शुरुआत की थी (248-49 ई. से)।
“कलचुरी” नाम के कई रूप जैसे – कटच्छुरी, कलचुटि, कालच्छुरि आदि पाए जाते हैं। कुछ विद्वान इसका संबंध तुर्की के “कुलचुर” शब्द से जोड़ते हैं, जिसका अर्थ होता है “उच्च उपाधियुक्त।”
राज्य और राजधानी
प्रारंभिक काल में इस वंश की राजधानी महिष्मती थी, जो वर्तमान मध्यप्रदेश में है। बाद में त्रिपुरी (जबलपुर) तथा छत्तीसगढ़ में रत्नपुर एवं तुम्माण प्रमुख केंद्र बने। रत्नपुर शाखा को दक्षिण कोशल शाखा तथा त्रिपुरी को चेदि शाखा कहा गया।
नवीन जानकारी:
- 9वीं सदी के उत्तरार्ध में कोकल्ल के पुत्र शंकरगण ने कोरबा के पाली क्षेत्र पर अधिकार किया और छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश की नींव रखी।
- रतनदेव ने 1050 ई. में रत्नपुर को राजधानी बनाया।
- 14वीं सदी के अंत में रायपुर शाखा बनी जिसकी स्थापना सिंघण व उनके पुत्र रामचंद्र (1409 ई.) ने की।
प्रमुख शासक
कोक्कल्ल प्रथम, गांगेयदेव, लक्ष्मीकर्ण, यश:कर्ण और जयसिंह जैसे शासक प्रमुख थे।
- छत्तीसगढ़ शाखा में कलिंगराज, रत्नदेव द्वितीय, जाज्वल्यदेव प्रथम, पृथ्वीदेव द्वितीय, जगतदेव जैसे कई शासक हुए।
- अंतिम शासक थे रघुनाथ सिंह (1732–1741 ई.), और रायपुर शाखा के अंतिम शासक शिवराज सिंहदेव (1750–1757 ई.)।
- कल्याण साय (1544–1581) ने भूमि व्यवस्थापन के लिए “जमाबंदी” की शुरुआत की, जिसे बाद में अंग्रेजों ने भी अपनाया।
धार्मिक योगदान
कलचुरी शासक मुख्यतः शैव थे, परंतु उन्होंने वैष्णव, जैन और बौद्ध धर्म को भी संरक्षण दिया। उनके ताम्रपत्र “ॐ नम: शिवाय” से शुरू होते थे।
- शैवाचार्यों की मत्तमयूर परंपरा के अलावा गोरखनाथ परंपरा का भी प्रभाव था।
- जाज्वल्यदेव प्रथम, गोरखनाथ के शिष्य थे, और उन्होंने भर्तृहरि व गोपीचंद की गाथाओं को प्रचलन में लाया।
शासन व्यवस्था
राजा के अधीन युवराज, महाराजपुत्र, महामात्य, सेनापति, महासांधिविग्रहिक आदि होते थे।
- महाश्वसाधनिक जैसे अश्वसेना अधिकारी का उल्लेख मिलता है।
- नगर प्रमुख पुर प्रधान कहलाता था।
- कई बार मंत्रिमंडल सिंहासन के योग्य उत्तराधिकारी का चयन करता था।
समाज और जीवनशैली
ब्राह्मण, कायस्थ, वैश्य वर्गों की महत्त्वपूर्ण भागीदारी थी।
- समाज में सवर्ण विवाह का चलन था, पर अनुलोम विवाह भी अज्ञात नहीं थे।
- स्त्रियाँ प्रशासन में भाग लेती थीं, उदाहरण: जाज्वल्यदेव प्रथम ने अपनी माता की सलाह पर बस्तर के राजा को कैद से छोड़ा।
- संयुक्त परिवार व्यवस्था और बहुविवाह प्रचलित था।
मुद्रा, व्यापार और मापन प्रणाली
गांगेयदेव और पृथ्वीदेव के समय सोने व तांबे के सिक्के प्रचलन में थे।
- नाप-तौल इकाइयाँ – खंडी, घटी, भरक, गोणी आदि।
- धान्य, पथकर, तटकर, द्रव्यांक जैसे अनेक कर प्रचलन में थे।
- दंतेवाड़ा की राजकुमारी मसकादेवी का आदेश किसानों को कर वसूली में परेशान न करने की मिसाल है।
साहित्य और संस्कृति
संस्कृत और प्राकृत का विकास हुआ।
- राजशेखर, युवराजदेव प्रथम के समय के प्रमुख कवि थे।
- उन्होंने कर्पूरमंजरी, काव्यमीमांसा, विद्याशालभंजिका जैसे ग्रंथ रचे।
शिक्षा और मठ
गोलकी मठ जैसे संस्थानों में शिक्षा, योग और धर्म प्रचार होता था।
- शिक्षा संस्थानों में व्याख्यान, सत्र, योग और संस्कारों की शिक्षा दी जाती थी।
स्थापत्य का योगदान
कलचुरी शासनकाल में स्थापत्य की अद्भुत परंपरा रही।
- रतनपुर, तुम्माण, पाली, मल्हार, शिवरीनारायण, जांजगीर, गनियारी, किरारीगोढ़ी, नारायणपुर आदि स्थानों पर मंदिर निर्माण।
- महामाया मंदिर (रतनपुर), शिव मंदिर (मल्हार), विष्णु मंदिर (जांजगीर) जैसे अनेक मंदिरों में उत्कृष्ट मूर्तिकला और स्थापत्य दिखाई देता है।
- रतनपुर किला, कंठी देउल, ज्योतिर्लिंग, शालभंजिका, पार्वती परिणय, रावण शिरोच्छेदन जैसी मूर्तियाँ प्रमुख उदाहरण हैं।
निष्कर्ष
कलचुरी वंश ने भारत के इतिहास में एक स्थायी छाप छोड़ी। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और ओडिशा के सांस्कृतिक स्वरूप को आकार देने में इनकी प्रमुख भूमिका रही। स्थापत्य, प्रशासन, साहित्य, धर्म, कला और कृषि सभी क्षेत्रों में उनका योगदान उल्लेखनीय रहा।
कलचुरी वंश की वंशज जातियाँ और उनकी उपशाखाएँ
वर्तमान समय में कलवार, कलाल और कलर नाम से पहचानी जाने वाली जातियाँ मुख्यतः कलचुरी या हैहय वंश की वंशज मानी जाती हैं। इन जातियों के भीतर भी कई उपशाखाएँ पाई जाती हैं, जिनमें प्रमुख हैं – ब्याहूत, जायसवाल, खरीदहा, शौण्डिक/सुंडी, जैसार ।
ये सभी उपजातियाँ सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यवसायिक रूप से आपस में जुड़ी हुई हैं और ऐतिहासिक रूप से कलचुरी वंश की गौरवशाली विरासत को आज भी जीवंत रूप से आगे बढ़ा रही हैं।
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