आज पूरे भारत में सामाजिक संस्थाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन इसके साथ-साथ उपजातीय नामों और छोटे-छोटे पदों के कारण मनमुटाव और बिखराव भी बढ़ता जा रहा है। कहीं लोग पद न मिलने से असंतुष्ट हो जाते हैं, तो कहीं सम्मान की अपेक्षा पूरी न होने से अलग-अलग संगठन बना लेते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि एक ही शहर में कलवार समाज की कई संस्थाएँ खड़ी हो जाती हैं और समाज की असली शक्ति कमज़ोर पड़ने लगती है।
लेकिन हमें यह भी देखना चाहिए कि असम ने पूरे भारत के सामने एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है। वहाँ पर न तो जायसवाल समाज है, न ब्याहूत, न खरीदाहा और न ही शौंडिक (सुंडी)। असम में सब केवल और केवल कलवार समाज के नाम से संगठित हैं। “अखिल असम कलवार समाज” के बैनर तले हर जिले में जिला समिति, महिला समिति और युवा समिति काम करती है। हर तीन साल पर एक विशाल महा सभा होती है, जिसमें असम ही नहीं बल्कि पूरे भारत के कलवार भाई-बहन शामिल होते हैं। यही कारण है कि असम का समाज संगठित, सशक्त और सम्मानित माना जाता है।
हमारे दो महान कुलदेवता – सहस्रबाहु अर्जुन जी और भगवान बलभद्र जी – भी हमें यही शिक्षा देते हैं। सहस्रबाहु जी को भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र का अवतार माना गया है। वे साहस, पराक्रम और धर्म-रक्षा के प्रतीक हैं। वहीं बलभद्र जी भगवान विष्णु के शेषनाग के अवतार हैं, जो धैर्य, स्थिरता और सेवा के प्रतीक हैं। जब हम दोनों की पूजा साथ करते हैं, तो हमें शक्ति और सेवा, पराक्रम और धैर्य – दोनों का संतुलन प्राप्त होता है। यही संतुलन समाज को जोड़ता और मजबूत बनाता है।
आने वाली जनगणना (Census) में सरकार केवल मुख्य जाति को ही मान्यता देगी। ब्याहूत, जायसवाल, खरीदाहा या शौंडिक जैसी उपजातियों का कोई स्थान नहीं होगा। यदि कोई उपजाति के नाम से अपनी पहचान दर्ज कराता है तो सरकार उसे “UNKNOWN CASTE” में डाल देगी। इसका सीधा अर्थ यह है कि हम अपनी सरकारी पहचान, जातीय मजबूती और भविष्य – सब कुछ खो देंगे।
इसलिए समय की माँग है कि हम सब एक स्वर में स्वयं को केवल कलवार लिखें और उसी नाम से पहचाने जाएँ। उपजातियों की दीवारें गिराकर एक ही बैनर तले काम करें। हमारे कुलदेवता हमें एकता, पराक्रम और सेवा की शिक्षा देते हैं। हमें वही मार्ग अपनाना है। एक समाज – एक पहचान – कलवार समाज। यही हमारी शक्ति है, यही हमारा भविष्य है और यही हमें अगली पीढ़ी को सौंपना है।