सावन अमावस्या में पुरी जगन्नाथ मंदिर में चतुर्धा विग्रहों के मस्तक में लगाया गया चिता आभूषण
जगन्नाथ जी के मस्तक में हीरा बलभद्र जी के मस्तक में नीलम एवं देवि सुभद्रा जी के मस्तक में लगाया गया माणिक चिता। किसानों ने खेतों में चितउ पीठा गाड़कर किया परंपरा का पालना। फसल रक्षा करने को किए पूजा अर्चना।
आज 8/8/21 सावन अमावस्या अर्थात चितालागी अमावस्या है। परंपरा के मुताबितक एक तरफ जहां पुरी जगन्नाथ मंदिर में श्री विग्रहों के मस्तक में सोने का चिता लागी कर चितालागी नीति सम्पन्न की गई तो वहीं दुसरी तरफ किसानों ने अपनी फसल की रक्षा के लिए चितउ पीठा तैयार कर खेतों में गाड़ते हुए गेंडा जैसे जंतु से अपनी फसल को बचाने के लिए पूजा अर्चना की है।
जानकारी के मुताबिक विधि एवं परंपरा के मुताबिक सावन अमावस्या तिथि में महाप्रभु जगन्नाथ जी के मस्तक में हीरे का चिता लगाया गया है जबकि बलभद्र जी के मस्तक में नीलम एवं देवि सुभद्रा जी के मस्तक में माणिक का चिता लगाया गया है। गौरतलब है कि देव स्नान पूर्णिमा के दिन 108 घड़े जल से स्नान करने के बाद महाप्रभु को बुखार हो गया था। ऐसे में प्रभु के मस्तक से चिता को निकाल लिया गया था। महाप्रभु जगन्नाथ, प्रभु बलभद्र जी एवं देवि सुभद्रा जी सोल का चिता परिधान कर 9 दिवसीय गुंडिचा यात्रा में निकले थे। आज एक बार फिर अमावस्या के दिन श्री विग्रहों को कीमती आभूषणों से निर्मित चिता को लगाया गया है।
उसी तरह से आज प्रत्येक ओड़िआ एवं किसानों के घरों में भी चितालागी अमावस्या पर्व को बड़े ही धूमधाम के साथ मनाया गया। किसान परिवार अपने घरों में पूरी तरह से शुद्धिकरण के साथ चितउ पीठा बना कर खेतों में गाड़ते हुए अपने फसलों की सुरक्षा के लिए पूजा अर्चना किए है।
गौरतलब है कि चितालागी अमावस्या अर्थात चितऊ उआंस ओड़िशा का एक सामूहिक पर्व है। यह पर्व सावन के महीने में अमावस्या तिथि में मनाया जाता है। इस दिन पुरी जगन्नाथ मंदिर में प्रभु जगन्नाथ, बलभद्र एवं देवि सुभद्रा जी को चितालागी किया जाता है। जगन्नाथ जी की दैनिक पूजा एवं धूप नीति संपन्न होने के बाद दइतापति सेवक तीनों विग्रहों के ललाट में चितालागी करते हैं।
इस चितालागी अमावस्या के दिन गेंडा आदि जलचर प्राणी के उद्देश्य में चितऊ व गइंठा आदि पीठा अर्पण किया जाता है। यह प्रथा शवर परंपरा से होने की बात कही जाती है। इसमें चितऊ पीठा बनाकर जीव जंतुओं को खिलाकर संतुष्ट करने की प्रथा है। इसके लिए इसे गेंडेईकटा उषा नाम से भी जाना जाता है।
बालेश्वर, मयूरभंज एवं केन्दुझर आदि इलाके में इस पर्व को गेंडाकटा अमावस्या कहा जाता है। यह ओडिशा के विभिन्न इलाके में आदिवासियों के बीच जंतु आदि को संतुष्ट करने के उद्देश्य से मनाए जाने वाले पर्व में से एक है। सामान्य रूप से किसान वर्षा ऋतु के समय में धान की फसल करते हैं। गेंडा जंतु फसल बर्बाद कर देते हैं। ऐसे में फसल बर्बाद ना हो इसके लिए चितऊ पीठा को सारू के पत्र में गेंडा जंतु के उद्देश्य से विभिन्न जलाशयों में रख दिया जाता है।