डा. के.पी. जायसवाल एम.ए, डी.-लिट-बार-एट-ला विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार, पुरातत्व के प्रकांड पंडित संस्कृत, हिंदी, नेपाली, अंग्रेजी, लेटिन, चीनी, फ्रेंच, जर्मनी इत्यादि 14 भाषाओं के श्रेष्ठ विद्वान थे, इनका हिंदू राजतंत्र प्रसिद्ध इतिहास है। — संपादक
टाइम्स आफ इंडिया के 31 अगस्त, 1960 के अंक में प्रकाशित एक समाचार से विदित हुआ है कि भारत सरकार ने सन् 1961 में कुछ विशिष्ट महापुरूषों के सम्मान में विशेष डाक टिकटों को जारी करने का निर्णय लिया है। उन महापुरूषों में प्रसिद्ध इतिहासकार डा.काशी प्रसाद जायसवाल का भी नाम है। प्रसिद्ध उपन्यासकार श्री अमृतलाल नागर ने कहा है कि यदि मुझे पीर मोहम्मद चिश्ती की भांति तीन घंटे की बादशाहत मिल जाए, तो मैं गाँव-गाँव के, मंदिरों में डा. काशी प्रसाद जायसवाल की मूर्तियाँ स्थापित करने का आदेश प्रसारित कर देँ। धन्य है मिर्जापुर और धन्य है जायसवाल जाति, जिनको डा. काशी प्रसाद जायसवाल ऐसे सपूत देश को ही नहीं, समस्त मानव जाति को देने का गौरव प्राप्त किया है। डा. काशी प्रसाद जायसवाल मिर्जापुर के प्रसिद्ध रईस साहु महादेव प्रसाद जायसवाल के पुत्र थे साहु महादेव प्रसाद तथा पं. मदन मोहन मालवीय का जन्म एक ही दिन हुआ था। उनमें परस्पर धनी मैत्री थी।
डा. काशी प्रसाद जायसवाल का जन्म 27 नवंबर, 1881 को झालदा में हुआ था। नालंदा जिला मानभूमि (प. बंगाल) में है। उस समय बिहार में था। मिर्जापुर में उनका लालन-पालन हुआ। डा. काशी प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था घर में ही की।
प्रत्येक विषय के अलग-अलग अध्यापक नियुक्त किए गए। घर पर संस्कृत पढ़ाने के लिए एक पंडित जी भी नियुक्त किए गए। मिर्जापुर के लंदन मिशन हाई स्कूल में दाखिला कराया गया।
19 वर्ष की अवस्था में एंट्रेंस परीक्षा उत्तीर्ण करके आगे की शिक्षा प्राप्त करने आप काशी गए। यहां आपना क्वींस कालेज में प्रवेश लिया। पिता ने मित्रों की सम्मति से इनकी बैरिस्टरी पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजा। चार वर्ष वहां रह कर आपने सन 1909 में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास में ससम्मान एम.ए. की डिग्री प्राप्त की और साथ ही मीडिल टेम्पुल से बैरिस्टरी की भी उपाधि प्राप्त किया।
उसी समय डाक्टर साहब चीनी भाषा में भी एक विशेष परीक्षा उत्तीर्ण किया। इस विषय के एक मात्र आप ही विद्यार्थी थे। वहां रहकर जायसवाल जी ने चीन-जापान में संस्कृत ग्रंथ’ शीर्षक लेख लिखकर सरस्वती में प्रकाशनार्थ भेजा। वह उग्र क्रांतिकारी बन और जीवन भर इस पथ के पथिक रहे।
होनहार विरवान के होत चिकने पात।’ डा.काशी प्रसाद जायसवाल बाल्यकाल से से ही प्रतिभाशली थे। क्या-पढ़ने-लिखने में, क्या व्यावहारिक कार्यों में, क्या घर के व्यवसाय में भी स्थान में इनकी प्रखर प्रतिभा की छाप थी। जीवन के क्षेत्र में वह चढ़ते सूर्य की भांति चढ़े, जिसके प्रकाश में देश के मनीषियों ने ज्ञान का स्वरूप देखा और मानव को पहचाना।
डा. साहब ने अपने रुचि एवं प्रतिभा का सदुपयोग भारत के अतीत कालीन इतिहास की खोज में किया। शिलालेखों, सिक्कों, प्राचीन हस्त लिखित प्रतियों तथा ग्रंथों के अध्ययन में उन्होंने अपने आपको समर्पित किया। इनकी खोजों के आगे विश्व के बड़े-बड़े विद्वान नतमस्तक हो गए।
उन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति की खोज की, काल निर्णय, सिक्कों के अध्ययन एवं शिला लेखों के संबंधों में प्रामाणिक रूप से प्रकाश डाला। सन् 1915 में भारतीय इतिहास के शोध, अन्वेषण एवं अनुसंधान के लिए जायसवाल जी ने ‘बिहार उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी’ की नींब डाली, जो आगे चलकर ‘डा.काशी प्रसाद जायसवाल रिसर्च इंस्टीट्यूट’ के नाम से प्रसिद्ध हुई और आज भी उसके माध्यम से बहुत से शोध कार्य होते रहते हैं।
पटना हाई कोर्ट की स्थापना के पश्चात जब जायसवाल जी पटना आए तो वहां वकालत और इतिहास की साधना करने लगे। अपने समय में वह शायद संसार के सबसे बड़े अनुसंधानी थे। ‘बिंसेंट स्मिथ’ ने भारत का जो इतिहास लिखा था, उसके बाद के संस्करणों में बराबर कुछ न कुछ परिवर्तन होता गया, क्योंकि जायसवाल जी के अनुसंधानों का क्रम जारी था और संसार के सामने बराबार वे कुछ ऐसे तथ्य रखे जा रहे थे, जो बिल्कुल नतून और अखंडनीय थे।
उन्होंने मगध क्षेत्र वैशाली के लिच्छवियों के संघ का उल्लेख किया तथा इस बात पर जोर दिया कि आजकल की ग्राम पंचायत प्राचीन भारत के संघ शासन की अवशेष मात्र है। इन लेखों ने देश-विदेश के विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया।
सन 1921 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने आपको ‘टैगोर ला लेक्चरर’ नियुक्त किया। इस भाषण माला के अंतर्गत आपने ‘मनु एवं यज्ञवल्कय’ पर व्याख्यान दिए, जिनका प्रकाशन बाद में हुआ। इनका अध्ययन विश्व के समस्त विश्वविद्यालयों में किया जाता है। इस पर कलकत्ता विश्वविद्यालय ने आपको ‘डाक्टर आफ ला’ की उपाधि से विभूषित किया।
सन् 1924 में जब डाक्टर साहब की ‘हिंदू पालिटी’ प्रकाशित हुई, तब आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. थॉमस बोडेन ने रायल एशियाटिक सोसाइटी’, लंदन के जर्नल में जायसवाल जी को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए लिखा था कि जायसवाल जी ने बहुत दिनों से चिंतनीय विषय का प्रकाशन किया है।
भारतीय मुद्राओं की खोज के संबंध में भी जायसवाल जी का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। जून 1935 में ‘रायल एशियाटिक सोसाइटी’ लंदन में मौर्यकालीन मुद्राएं’ विषय पर भाषण देने के लिए आमंत्रित करके सम्मान प्रदान किया गया। आप दो बार अ.भा. मुद्राशास्त्र सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गए। प्राचीन भारत में छोटे से लेकर बड़े सिक्के सोने के ही होते थे विदेशी लोग यहां से मिर्च और लौंग ले जाकर उसके बराबर सोना दिया करते थे। सिक्कों के अध्ययन से ही सिद्ध किया था कि भारत में अतुलनीय स्वर्ण का भंडार था। इसलिए गुप्तकाल को इतिहास में स्वर्ण युग कहा गया है। सचमुच वह भारत देश को प्यार करते थे और उसका रहस्य जानने के लिए स्वप्न देखा करते थे। जिन खोज पूर्ण कार्यों में उन्हें प्राचीन दुनिया और नई दुनिया में भी एक विश्व विख्यात व्यक्ति बनाया।
प्रसिद्ध इतिहासकार श्री आर.डी. बनर्जी के अनुसार जायसवाल जी ने अनेक शिलालेखों तथा स्तम्भ लेखों का अध्ययन करके भारतीय इतिहास के संबंध में ऐसे-ऐसे तथ्य खोज निकाले, जिसका उस समय तक किसी को पता भी नहीं था।
आज सारे विश्व में डाक्टर काशी प्रसाद जायसवाल का नाम उजागर है। उनकी गणना सर्वत्र विश्व विख्यात महापुरूषों की श्रेणी में की जाती है। इसका मूल कारण उनके तीन वर्षों के प्रयलों के फलस्वरूप उनके इतिहास ग्रंथ हैं। सर गुरुदास बनर्जी ने इनकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि इनके समान योग्य व्यक्ति अत्यंत दुष्कर है।
नि:संदेह डा. काशी प्रसाद जायसवाल इतिहास के धुरंधर विद्वान, प्राचीन लिपि मर्मज्ञ एवं महान पुरातत्व वेता थे। अपनी इसी योग्यता के कारण उन्होंने देश और जाति का जो उपकार किया, वह सदा अविस्मरणीय रहेगा। आप अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित थे तथा भारत विद्या के प्रकांड पंडितों में आप सर्वश्रेष्ठ समझे जाते थे।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद के अनुसार उनका झुकाव प्राचीन भारत के इतिहास के अन्वेषण की ओर था। कानून का व्यवसाय तो उन्हें विवशतावश करना पड़ा।
कविवर टैगोर जायसवाल जी की महानता तथा प्रेरणादायक व्यक्तित्व से बड़े प्रभावित थे तथा उनके प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे। उनकी यह अभिलाषा सदैव रहती थी कि जायसवाल जी उनकी कविता की प्रशंसा में कुछ लिखें।
राष्ट्र कवि श्री रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक ‘संस्मरण एवं श्रद्धांजलियाँ’ में ‘पुण्य श्लोक जायसवाल जी’ निबंध में डाक्टर काशी प्रसाद जायसवाल को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा, ‘जब जायसवाल जी मेरे जीवन में आए उससे पूर्व किसी भी बड़े आदमी की दृष्टि मुझ पर नहीं पड़ी थी और यह अच्छा ही हुआ कि मेरे सबसे प्रथम प्रशंसक जायसवाल जी हुए क्योंकि अब जब मैं सूर्य, चंद्र, वरुण, कुबेर, बृहस्पति, शुक्र, इंद्र, शची और ब्राह्माणी सबके प्रेम और प्रोत्साहन का स्वाद जान चुका हूँ, तब यह साफ दिखलाई देता है कि उनमें से कोई भी वैसा नहीं था जैसे जायसवाल जी थे।
विलायत में अध्ययन करते समय काशी प्रसाद जायसवाल ने खोज संबंधी ऐसे जोरदार लेख लिखे कि बड़े-बड़े इतिहासज्ञों के दाँत खट्टे हो गए और जायसवाल जी को बुलाकर अपनी-अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। डा. शिलव्याँ लेबी फ्रांस के रहने वाले प्रकांड संस्कृतज्ञ पंडित थे। जब उन्होंने उनके लेख पढ़े तो पत्र लिखकर उनको अपनी श्रद्धांजलि में अर्पित की और उन्हें फ्रांस आने का स्नेहपूर्ण निमंत्रण भी दिया।
ऐसे महान विश्व प्रसिद्ध डा. काशी प्रसाद जायसवाल के हृदय में जाति के प्रति भी विमल प्रेम था। उन्होंने जाति के इतिहास को भली-भांति समझा था। जाति में जागरण लाने तथा उसके संगठित करने का आजीवन प्रयास करते रहे।
उन दिनों जायसवाल जाति की सामाजिक स्थिति अत्यंत गिरी हुई थी। एक ऐसे वातवरण बना हुआ था, जिसमें अन्य सवर्ण जातियाँ इसे हीन समझती थी। विद्या, धन, वैभव संपन्न होने पर भी उसे समाज में वह सम्मान प्राप्त न था, जिसकी कामना सभ्य जगत में की जाती है।
वह जाति की महासभा के सच्चे पथ प्रदर्शक बने और जातीय कार्यों में रुचि ली। उन्होंने महासभा के अधिवेशनों में जाकर जाति बंधुओं को उत्थान के हेतु उत्प्रेरित किया। महासभा के माध्यम से जाति में जागृति लाने का श्रेय जायसवाल जी को ही है। आपने ही यह खोज निकाला कि हमारी जाति क्षत्रिय है और इसे समाज में उनके अनुरूप सम्मान प्राप्त होना चाहिए।
महासभा के माध्यम से सबने अपने आपको क्षत्रिय घोषित किया और इसके अनुरूप समाज में सम्मान प्राप्त करने के लिए संघर्ष के क्षेत्र में कदम बढ़ाया। आज समाज में हमें वांछित सम्मान प्राप्त है। इसका श्रेय डा. काशी प्रसाद जायसवाल को ही है।
तत्कालीन कलकत्ता के प्रसिद्ध वकील श्री नारायण चंद्र साहा को आर्थिक सहायता प्रदान कर आपने उन्हें जातीय साहित्य के प्रचार व प्रसार में अपना अमूल्य सहयोग दिया। जाति के निर्धन छात्रों को छात्रवृत्ति एवं अन्य आवश्यक सहायता देकर उन्हें सुशिक्षित बनाया आपने जाति की महासभा का विधान बनाया जो अब तक अपरिवर्तित है।
अपने ‘कलवार गजट’ पत्रिका का प्रकाशन करवाया और उसका संपादन स्वयं किया। आपके कारण ही जायसवाल जाति का नाम संसार में विदित हुआ। श्री मिश्री लाल जायसवाल विश्व साइकिल पर्यटक ने एक बार बताया था कि जर्मनी में डा. काशी प्रसाद जायसवाल के नाम की एक सड़क है। जायसवाल जाति का इससे बढ़कर सम्मान और क्या हो सकता है?
आप बड़े उदार और दानी थे। चुपके-चुपके दान देने में आप अपना गौरव समझते थे। प्रायः उनके पास परिस्थिति के मारे संभ्रांत कातर व्यक्ति आते थे, जिन्हें वह चुपके-चपके पर्याप्त सहायता किया करते थे, किसी गरीव छात्रों के लिए उनके हृदय में बड़ी दया थी। उनकी स्नेह छाया में पल्लवित होकर और पोषण प्राप्त करके न जाने कितने दीन-हीन छात्र उच्चतम शिक्षा प्राप्त करके आज उत्तरदायित्व पूर्ण पदों को सुशोभित कर रहे हैं। वह सबका आदर और सम्मान करते थे तथा महान कार्यों के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन देते थे। महान पंडित राहुल सांस्कृत्यायन, राष्ट्रकवि, दिनकरजी मोहन लाल महतो आदि अनेक विद्वानों के डा. साहब आश्रय स्थल थे। उनके कारण ही वे महान बने।
जायसवाल जी एक महान देश भक्त थे। इस संबंध में दिनकर जी ने अपने निबंध में लिखा है, “जायसवाल जी आरंभ से ही तेजस्वी देश भक्त थे, अतएव अंग्रेजों ने उनको नौजवानों के बीच रखा जाना पसंद नहीं किया।” स्वतंत्र वीर विनायक दामोदर सावरकर भी कहा करते थे कि जायसवाल जी बड़े ही देश भक्त, साहसी और उच्च कोटि के विद्वान थे।
जायसवाल जी वास्तव में जिंदा दिल इंसान थे वह दूसरों की नजरों में महान थे और स्वयं सदा महत्ता की ओर ध्यान रखते थे। आप सरल स्वभाव के मिलनसार व्यक्ति थे।
उनके इन्हीं गुणों एवं महान कार्यों से प्रभावित होकर एच.के. जायसवाल सभा, प्रयाग ने अपने कालेज का नाम डा. काशी प्रसाद जायसवाल इंटर कालेज तथा बेसिक स्कूल का नाम डा. काशी प्रसाद जायसवाल बेसिक स्कूल रखा, जिससे उनका नाम उज्ज्वल हो रहा है। डा. काशी प्रसाद जायसवाल ऐसे ही महापुरूषों में हैं। इन्होंने निश्छल और स्वार्थ रहित भावना से राष्ट्र और जाति की उन्नति में सफल योगदान किया। इसके लिए देश और जाति और उनकी सदा ऋणी रहेगी।
डा. काशी प्रसाद जायसवाल ने जीवन के छप्पन बसंत एवं शरद की सुषमा का आनंद प्राप्त किया। अधिक कार्यभार के कारण उनका स्वास्थ्य अब पूर्ववत न रहा। वह घातक कारबंकल फौड़े से ग्रसित हुए। तीन महीने तक इसके प्रकोप एवं आयात से निरंतर संघर्ष करते रहे। लेकिन विधि का विधान टाले नहीं टलता। 4 अगस्त 1937 को उन्होंने इस असार संसार से प्रस्थान किया। उनकी यश: सुरभि सर्वत्र व्याप्त है और प्रवुद्ध मानव को उत्साह और प्रेरणा से भरती रहती है।
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