हैहय–कलचुरी वंश: हमारी विरासत, हमारा अभिमान
✍️ यह लेख समर्पित है उन महान आत्माओं को, जिन्होंने भारत के इतिहास, संस्कृति और समाज को एक दृढ़ आधार दिया।
“इतिहास केवल अतीत नहीं, वह एक धरोहर है, जो आने वाली पीढ़ियों को दिशा दिखाती है।”
1. हैहय और कलचुरी वंश की उत्पत्ति
हैहय वंश एक प्राचीन क्षत्रिय वंश था, जिसकी जड़ें वैदिक काल तक जाती हैं। इसका संबंध पौराणिक राजा कार्तवीर्य अर्जुन (सहस्रबाहु अर्जुन) से था। इस वंश की प्रारंभिक राजधानी महिष्मती (वर्तमान महेश्वर, मध्यप्रदेश) थी। बाद में इन्हीं की ऐतिहासिक शाखा के रूप में कलचुरी वंश का उद्भव हुआ।
कलचुरी शब्द की एक लोककथात्मक व्याख्या के अनुसार यह “कल्ली” (लंबी मूंछें) और “चुरी” (तेज़ नाखून) से मिलकर बना, क्योंकि हैहय शासकों के वंशज जंगलों ज्यादा रहते थे जिससे उनके हावभाव बदल गए।
2. चेदि और हट्टी (Hatti) की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
“हट्टी/हिट्टाइट” शब्द का प्रयोग प्राचीन आर्य क्षत्रियों के लिए हुआ। भारत में इन्हें चेदि कहा गया, जो 16 महाजनपदों में एक था। चेदि की राजधानी शक्तिमती (संथिवती) मानी जाती है, जो आधुनिक बुंदेलखंड क्षेत्र में आती है। हट्टी शब्द का संबंध प्राकृत “खत्तिय” (क्षत्रिय) से है, जो आगे चलकर “मरहट्ट” (महाराष्ट्र) शब्द की व्युत्पत्ति में योगदान देता है। हट्टीजन = पशुपालक समाज।
3. कलचुरी वंश की शाखाएँ और राज्य विस्तार
कलचुरी वंश का शासनकाल छठी से अठारहवीं शताब्दी तक फैला रहा। प्रमुख शाखाएँ थीं:
- त्रिपुरी शाखा (मध्यप्रदेश – जबलपुर के पास)
- रत्नपुर शाखा (छत्तीसगढ़ – रत्नदेव प्रथम द्वारा स्थापित)
- रायपुर शाखा (14वीं सदी – रामचंद्र द्वारा)
- दक्षिण कलचुरी शाखा (कर्नाटक – राजधानी मंगलवेदा)
इनके राज्य गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और कर्नाटक तक फैले थे।
4. प्रमुख शासक और शासन व्यवस्था
- त्रिपुरी शाखा: कोक्कल्ल प्रथम, गांगेयदेव, लक्ष्मीकर्ण, यश:कर्ण
- छत्तीसगढ़ शाखा: रत्नदेव द्वितीय, जाज्वल्यदेव प्रथम, पृथ्वीदेव द्वितीय
- रायपुर: शिवराज सिंहदेव (अंतिम शासक)
- दक्षिण शाखा: बिज्जल द्वितीय (1130–1167), संकर्मा, सोविदेव
शासन प्रणाली में युवराज, महासांधिविग्रहिक, महाश्वसाधनिक, पुर-प्रधान जैसे पद होते थे। कल्याण साय ने भूमि व्यवस्था हेतु “जमाबंदी” की शुरुआत की।
5. धर्म, समाज और संस्कृति
कलचुरी शासक मूलतः शैव थे, परंतु उन्होंने वैष्णव, जैन, बौद्ध धर्मों को भी संरक्षण दिया। “ॐ नम: शिवाय” से उनके ताम्रपत्र शुरू होते थे। गोरखनाथ परंपरा और मत्तमयूर शैवाचार्य परंपरा का गहरा प्रभाव था। राजाओं की माताएँ भी निर्णयों में भाग लेती थीं — जैसे जाज्वल्यदेव प्रथम ने अपनी माता के सुझाव पर राजा को मुक्त किया। समाज में संयुक्त परिवार, बहुविवाह, अनुलोम विवाह और वर्ण व्यवस्था विद्यमान थी।
6. साहित्य, शिक्षा और स्थापत्य
संस्कृत और प्राकृत साहित्य का उत्कर्ष हुआ। कवि राजशेखर ने कर्पूरमंजरी, काव्यमीमांसा, विद्याशालभंजिका जैसे ग्रंथ रचे।
शिक्षा मठों (जैसे गोलकी मठ) में होती थी, जहाँ योग, व्याख्यान, संस्कार आदि सिखाए जाते थे। कर्पूरमंजरी: यह एक प्राकृत भाषा में लिखा गया सट्टक (एक प्रकार का नाटक) है। काव्यमीमांसा: यह एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जो काव्यशास्त्र (कविता और साहित्य) पर लिखा गया है। विद्याशालभंजिका: यह एक संस्कृत नाटक है।
मंदिरों में त्रिदेवों की पूजा होती थी। प्रसिद्ध मंदिर और स्थापत्य:
- महामाया मंदिर (रतनपुर)
- शिव मंदिर (मल्हार)
- विष्णु मंदिर (जांजगीर)
- रावण शिरोच्छेदन, पार्वती परिणय जैसी मूर्तियाँ अद्भुत हैं।
- एलोरा की गुफाओं का निर्माण एलोरा की गुफाओं का संबंध हैहय वंश के कलचुरी शासकों से है। विशेष रूप से, एलोरा की गुफा संख्या 29 और 21 (रामेश्वर) में कलचुरी शासनकाल के दौरान और संभवतः उनके संरक्षण में निर्माण कार्य हुए थे। (राष्ट्रकूट, कलचुरी, चालुक्य और यादव राजवंशों द्वारा करवाया गया था. )




7. मुद्रा, मापन और कर व्यवस्था
- गांगेयदेव और पृथ्वीदेव द्वितीय के समय तांबे और सोने के सिक्के प्रचलन में थे।
- नाप-तौल की इकाइयाँ: खंडी, घटी, भरक, गोणी
- कर प्रकार: धान्यकर, पथकर, तटकर, द्रव्यांक
- राजकुमारी मसकादेवी ने किसानों पर अत्यधिक कर न लगाने का आदेश दिया था।

गांगेयदेव के शासन काल में सिक्के
8. कलचुरी वंशज जातियाँ और सामाजिक पहचान
आज भी कलवार, कलाल, कलर आदि जातियाँ स्वयं को कलचुरी/हैहय वंश की वंशज मानती हैं।
इनके कलवारअंतर्गत कई उपशाखाएँ हैं – ब्याहूत, जायसवाल, खरीदहा, शौण्डिक/सुंडी, जैसार।
ये उपजातियाँ सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यावसायिक रूप से एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।
कुछ उपनाम को कलवार , कलाल, कलर समाज के और इन जाति के और उसके उपजाति के लोग अपने पुकार नाम के बाद लिखते हैं :- साह, गुप्ता, प्रसाद, भगत, महाजन, सराफ, ब्याहूत, जायसवाल, शाह, खरीदहा, साहू, शिवहरे, गुलहरे, बाथम, सौंदिक, सुंडी, नायक, बेरा, मालाकार, मल्लिक, पाहन, पाहन साहू, बिसेन

🔚 निष्कर्ष
कलचुरी वंश भारतीय इतिहास का एक दीर्घकालीन, शक्तिशाली और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध वंश था।
उसका शासन केवल क्षेत्रीय नहीं था, बल्कि उसने उत्तर और दक्षिण भारत की सांस्कृतिक एकता में भी योगदान दिया।
आज भी इस वंश की पहचान उनकी स्थापत्य, नीति, धर्म और समाज सुधार की नीतियों में जीवित है।
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