सहस्त्रबाहु अर्जुन, जिन्हें सहस्त्रार्जुन और कार्तवीर्य अर्जुन भी कहा जाता है, भारतीय इतिहास और पुराणों में एक अद्वितीय स्थान रखते हैं। वे न केवल एक शक्तिशाली राजा थे, बल्कि उनकी गाथा धर्म, शक्ति, अहंकार, क्षमा और प्रतिशोध की भी कहानी है। यह पुस्तक उनके जीवन, उपलब्धियों, संघर्षों और उनसे जुड़े पौराणिक प्रसंगों का समग्र चित्र प्रस्तुत करती है।
अध्याय 1: परिचय और वंश
सहस्त्रबाहु अर्जुन हेहय वंश के प्रतापी राजा थे, जिनकी राजधानी माहिष्मती नगरी थी (जो वर्तमान मध्य प्रदेश के महेश्वर क्षेत्र से जुड़ी मानी जाती है)। उनके पिता का नाम कृतवीर्य था। उन्हें भगवान दत्तात्रेय से वरदान प्राप्त था, जिसके कारण उनके सहस्र भुजाएं थीं और वे अजेय योद्धा माने जाते थे।
अध्याय 3: रावण से युद्ध और मित्रता
एक बार रावण, जो शिवभक्त था, नर्मदा तट पर शिव की पूजा कर रहा था। सहस्त्रबाहु अर्जुन उसी स्थान पर जलक्रीड़ा कर रहे थे और उन्होंने खेल ही खेल में अपनी सहस्र भुजाओं से नर्मदा नदी का प्रवाह रोक दिया। रावण ने क्रोधित होकर उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। नर्मदा तट पर भयंकर युद्ध हुआ और सहस्त्रबाहु ने रावण को बंदी बना लिया।
जब यह बात रावण के पितामह पुलस्त्य मुनि को ज्ञात हुई, तो उन्होंने सहस्त्रबाहु से रावण को मुक्त करने का अनुरोध किया। अर्जुन ने सहर्ष रावण को मुक्त किया और मित्रता स्थापित की।
अध्याय : कामधेनु और ऋषि जमदग्नि का प्रसंग
महाभारत के अनुसार, एक बार सहस्त्रबाहु अर्जुन अपने सैन्यदल के साथ वनविहार पर निकले और ऋषि जमदग्नि के आश्रम में कुछ समय ठहरे। ऋषि के पास कामधेनु नामक दिव्य गाय थी, जो सभी इच्छाओं को पूर्ण करती थी।
ऋषि ने उसी कामधेनु के माध्यम से राजा और उनकी सेना का आदर-सत्कार किया। सहस्त्रबाहु कामधेनु की चमत्कारी शक्तियों से मोहित होकर उसे बलपूर्वक ले गए। उस समय परशुराम आश्रम में नहीं थे।
अध्याय 5: परशुराम और सहस्त्रबाहु का युद्ध
जब परशुराम आश्रम लौटे और उन्हें यह घटना पता चली, तो वे क्रोध से भर उठे। उन्होंने अपने फरसे को कंधे पर रखा और सहस्त्रबाहु अर्जुन से युद्ध करने के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में ही परशुराम का सामना सहस्त्रबाहु और उसकी विशाल सेना से हुआ।
परशुराम ने अकेले ही सारी सेना का संहार कर दिया और अंत में सहस्त्रबाहु अर्जुन से युद्ध किया। उन्होंने अपने परशु से अर्जुन की एक-एक भुजाओं को काट दिया और अंततः अंततः जब अर्जुन थक कर निढाल हो गए, परशुराम ने उन्हें वीरगति प्रदान की।
अध्याय 6: प्रतिशोध की ज्वाला
सहस्त्रबाहु अर्जुन के पुत्रों ने अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया। यह समाचार जब परशुराम को मिला, तो वे क्रोधित हो उठे। अपने पिता की हत्या से क्षुब्ध होकर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया।
अध्याय 7: लोक परंपरा में सहस्त्रबाहु
भारत के अनेक क्षेत्रों में सहस्त्रबाहु अर्जुन को कुलदेवता के रूप में पूजा जाता है। विशेषकर कुछ राजवंशों, क्षत्रिय, कलवार कलाल, कलार और यादवों की शाखाओं में उनका स्मरण बल, समर्पण और साहस के प्रतीक के रूप में होता है। अनेक मंदिरों और लोकगीतों में आज भी उनकी गाथा जीवित है।
सहस्रबाहु अर्जुन की पहचान: नाम और उनके कारण
नाम | कारण / उपाधि |
---|---|
कार्तवीर्य अर्जुन | पिता कृतवीर्य के कारण |
सहस्रबाहु / सहस्रार्जुन | एक हजार हाथों के वरदान से |
हैहय वंशाधिपति | हैहय वंश के महान राजा |
माहिष्मति नरेश | माहिष्मति (अब महेश्वर) के राजा |
सप्त द्वीपेश्वर | सात महाद्वीपों के विजेता |
दशग्रीवजयी | रावण को पराजित किया |
राज-राजेश्वर | राजाओं के अधिपति |
- सहस्रबाहु अर्जुन का इतिहास
राजा कार्तवीर्य अर्जुन प्राचीन हैहय वंश के एक महान सम्राट थे, जिनका उल्लेख महाभारत और पुराणों में मिलता है।
वह माहिष्मति नगरी (वर्तमान महेश्वर, मध्यप्रदेश) के शासक थे। यह नगर नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। उन्होंने यह नगर कार्कोटक नाग को हराकर बसाया था।
- सहस्रबाहु की राजधानी – माहिष्मति
वर्तमान में जिसे महेश्वर कहा जाता है, वही पुरानी माहिष्मति नगरी है। यह नगर सहस्रबाहु जी की प्रशासनिक, धार्मिक और सांस्कृतिक राजधानी था।
- धार्मिक दृष्टिकोण: सहस्रबाहु और शिव भक्ति
राजराजेश्वर मंदिर में आज भी सहस्रबाहु जी की देवतुल्य पूजा होती है।
मंदिर में देसी घी के ग्यारह नंदा दीपक युगों से अखंड रूप से प्रज्वलित हैं।
उनकी शिव-भक्ति और धर्मनिष्ठा का यह जीवंत प्रतीक है।
- सहस्रबाहु की समाधि
मंदिर के गर्भगृह में स्थित शिवलिंग ही सहस्रबाहु अर्जुन जी की समाधि मानी जाती है।
मत्स्य पुराण, अध्याय 43, श्लोक 52 में उनकी महिमा का वर्णन मिलता है:
“यस्तस्य कीर्तेनाम कल्यमुत्थाय मानवः…”
(भावार्थ) – जो मनुष्य प्रातः काल श्री कार्तवीर्य अर्जुन का स्मरण करता है, उसके धन का कभी नाश नहीं होता और आत्मा पवित्र हो स्वर्गलोक में सम्मान पाती है।
- सहस्रबाहु जयंती और लोक परंपरा
महेश्वर नगर में प्रतिवर्ष अगहन माह की शुक्ल सप्तमी को सहस्रबाहु जयंती मनाई जाती है।
यह तीन दिवसीय पर्व होता है, जिसका समापन भंडारा और भक्ति आयोजनों से होता है।
पुराणों के अनुसार, यह पर्व कार्तिक शुक्ल सप्तमी को भी मनाया जाता है — विशेषतः दीपावली के बाद।
यह दिन क्षत्रिय धर्म, न्याय और वीरता की भावना को पुनर्जीवित करता है।
- भक्ति-पंक्तियाँ (भजन रूप में)
जिस भक्त का सर झुके , सहस्रबाहु के आगे !!
सारी दुनिया झुकती है , उस इंसान के आगे !!
सुबह-शाम भजन कर ले , मुक्ति का यतन कर ले !!
छूट जायेगा जन्म-मरण , सहस्रबाहु का सुमिरन कर ले !!
अनंत कोटि ब्रह्मांड नायक, राजा धीराज योगीराज
परब्रह्म श्री सचिदानंद सद्गुरु
सहस्रार्जुन महाराज की जय !!
ॐ सहस्रबाहवे नमः।
ॐ जय जय कार्तवीर्यार्जुनाय नमः।
- लोकमान्यता और आज का संदर्भ
भारत के कई राज्यों — मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात आदि — में आज भी सहस्रबाहु जी की पूजा, कथा व्रत, मेले आदि प्रचलित हैं।
उनकी कथा वीरता, न्यायप्रियता और धर्म की प्रेरणा आज भी देती है।
📘 परिशिष्ट 1: वंशावली तालिका — हेहय से कालचुरी तक
पीढ़ी क्रमांक | वंशज का नाम | टिप्पणी / पहचान |
---|---|---|
1 | यदु | यदुवंश की प्रारंभिक शाखा |
2 | सहस्त्रजित् | यदु के पुत्र |
3 | हैहय | सहस्त्रजित् के वंशज; हेहय वंश की स्थापना |
4 | धर्मनेमि | हैहय का पुत्र |
5 | कृतवीर्य | धर्मनेमि का पुत्र |
6 | कार्तवीर्य अर्जुन | कृतवीर्य के पुत्र; सहस्त्रबाहु |
7–14 | विभिन्न वंशज | नाम अस्पष्ट, लोक परंपराओं में विविधता |
15+ | कालचुरी वंश (छत्तीसगढ़, मध्य भारत) | हेहय वंश की उत्तरकालीन शाखा मानी जाती है |
16+ | चेदि और त्रिपुरी नरेश | कालचुरियों की विस्तारित शाखाएं |
🔍 विशेष: कालचुरी वंश का उत्थान 6वीं शताब्दी से होता है और यह 13वीं शताब्दी तक सक्रिय रहा।
📚 परिशिष्ट 3: संदर्भ ग्रंथों की सूची
📜 संस्कृत स्रोत:
- महाभारत (शांतिपर्व, अनुशासन पर्व)
- वायु पुराण
- मत्स्य पुराण (अध्याय 43, श्लोक 52)
- भागवत पुराण (9वाँ स्कंध)
- हरिवंश पुराण
- पद्म पुराण
📖 आधुनिक शोध और इतिहासकार:
- डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल – “हिंदू पॉलिटी” में हेहय वंश का उल्लेख
- ए. एल. बाशम – “The Wonder That Was India”
- Romila Thapar – “Early India” में पौराणिक पात्रों की ऐतिहासिकता
- D. C. Sircar – पुरालेखीय प्रमाणों की व्याख्या
- R. K. Sharma – कालचुरी वंश और उनका उत्तर भारत में प्रभाव
⏳ परिशिष्ट 4: संभावित कालरेखा (Timeline)
कालखंड | घटनाएँ |
---|---|
लगभग 2500–2000 BCE | यदु वंश की प्रारंभिक शाखाएँ (पुराणों के अनुसार) |
लगभग 1500–1200 BCE | हेहय वंश का उदय – माहिष्मती की स्थापना |
लगभग 1200 BCE | कृतवीर्य और सहस्रबाहु अर्जुन का काल |
1100–1000 BCE | परशुराम द्वारा क्षत्रियों का संहार (पौराणिक संदर्भ) |
1000–800 BCE | हेहय वंश की उत्तर-पीढ़ियाँ |
6वीं शताब्दी CE | कालचुरी वंश का पुनरुत्थान – छत्तीसगढ़, मध्य भारत |
10वीं–13वीं शताब्दी | कालचुरी (त्रिपुरी/रतनपुर शाखाएँ) चरम पर |
यह कालरेखा पौराणिक वर्णनों और कुछ ऐतिहासिक अनुमानों पर आधारित है।