उद्देश्य

कलवार समाज के विभिन्न कार्यक्रमों के दौरान यह महसूस हुआ कि भगवान सहस्रबाहु के विषय में समाज के अधिकांश लोगों को विशेष जानकारी नहीं है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस पुस्तक को प्रकाशित करने का संकल्प हुआ, जो भगवान सहस्रबाहु के आशीर्वाद से पूर्ण हुआ है।

भगवान सहस्रबाहु के संदर्भ में विभिन्न पुराणों एवं पुस्तकों के अध्ययन से जानकारी एकत्रित करके यह पुस्तक सार-रूप में समाज को जानकारी उपलब्ध कराने के उद्देश्य से प्रकाशित की गई है। इस पुस्तक में उल्लेखित तथ्यों की सच्चाई के विषय में प्रकाशक कोई दावा नहीं पेश करते।

भगवान सहस्रबाहु एक जागृत देवता हैं, जिनके विषय में समाज को या यूं कहा जाए आज के मानव को बहुत जानकारी नहीं है। लोग भगवान सहस्रबाहु के जीवन रहस्य के विषय में जानना तो चाहते हैं, परंतु क्रमबद्ध साहित्य के अभाव में जानकारी नहीं हो पाती है।

आशा है यह पुस्तक भगवान सहस्रबाहु के जीवन पर प्रकाश डालने में सफल रहेगी।

संस्करण की भूमिका

सहस्रार्जुन भगवान के विषय में वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में विस्तारपूर्वक विवरण मौजूद है। वाल्मीकि रामायण का हिंदी अनुवाद हर धार्मिक पुस्तक विक्रेता के यहां उपलब्ध है, जिसे आप लोगों को पढ़ना चाहिए।

जब भगवान राम लंका विजय के पश्चात अयोध्या का राजपाट संभाल लेते हैं तो उनके में यह उत्कंठा जागृत होती है कि आतताई रावण धरती पर जब विचरण करता हुआ अत्याचार अनाचार कर रहा था तो क्या इस धरती पर कोई ऐसा शूरवीर राजा नहीं था जो उसे परास्त कर अंकुश लगा सके ? ऐसी उत्कंठा को शांत करने के लिए भगवान राम अगस्त मुनि के आश्रम जाते हैं।

अगस्त मुनि उन्हें उचित आतिथ्य एवं सम्मान देकर विराजमान करते हैं, भगवान राम ने अगस्त्य मुनि से अपने मन की जिज्ञासा को बताया।

अगस्त मुनि यह सुनकर मुस्कुराते हुए कहते हैं कि राजन ! ऐसा नहीं है निरंकुश रावण को कई बार हार का मुख देखना पड़ा था। एक बार रावण इस धरती पर विचरण करता हुए अमरावती के जंगलों को पार करके नर्मदा के तट पर पहुंचा जहां हैहय वंश के महाप्रतापी राजा अग्नि के समान तेजस्वी सहस्रार्जुन ने मामूली संघर्ष के बाद रावण को बंदी बना लिया। छह माह तक बंदी रहने के दौरान स्वर्ग में यह जानकारी हुई कि रावण बंदी बना लिया गया है, तो पुलस्त्य ऋषि स्वर्ग से धरती पर आकर राजा अर्जुन से रावण को मुक्त कराते हैं।

तुलसीकृत 'रामचरित मानस' में भी पांच विभिन्न अवसरों पर सहस्रबाहु का नाम आता है। इसी प्रकार अनेक ग्रंथों में हमारे कुलदेवता का वर्णन मिलता है। इस नई जानकारियों को समय-समय पर आप तक पहुंचातेरहेंगे। किसी भी त्रुटि-संशोधन एवं बहुमूल्य सुझावों के लिए सुधी पाठकों के विचार सादर आमंत्रित है। हमें अति प्रसन्नता होगी।

सहस्रबाहु अर्जुन के विषय में ऐसी मान्यता है कि ये भगवान विष्णु के सुदर्शन के अवतार हैं। इस तरह का अवतार धरती पर तभी होता है, जब मानव का अस्तित्व खतरे में पड़ता है। हर तरफ उथल-पुथल, अव्यवस्था तथा धर्म निष्ठ लोग सताए जाते हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में ही भगवान का अवतार होता है। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- जब-जब धरती पर धर्म की हानि होती हो, मैं अवतार लेता हूँ।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम् सृजाम्यहम् ।।

त्रेता युग में भगवान राम ने अवतार लेकर एक साधारण मानव के रूप में समाज एवं मानव को यह संदेश देने का सफल प्रयास किया कि पुत्र का पिता के आदेश-पालन का कितना महत्व है। भाई का भाई के प्रति क्या दायित्व है। पत्नी का पति के साथ क्या व्यवहार हो, मित्र का क्या स्थान एवं महत्व है। अन्यायी एवं अत्याचारी का किस प्रकार अन्त हो ? शायद उस समय यह सब उपरोक्त व्यवस्था चरमरा गई थी । इसीलिए भगवान राम ने अवतार लेकर लीला किया और कार्य पूरा होने पर बैकुंठ गए।

इसी प्रकार द्वापर युग में उपरोक्त सारी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो गयी होगी। इसीलिए द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने अवतार लेकर विभिन्न लीला किया और जहाँ एक ओर कंस का वध किया वहीं दूसरी ओर कौरव-पाण्डव के धर्म युद्ध में अहम भूमिका निभा कर गीता का उपदेश दिया। गीता आज न केवल भारत में अपितु विश्व में विभिन्न भाषाओं में रूपातंरित करके अध्ययन और अनुसंधान की केंद्र बिन्दु है।

भगवान सहस्रबाहु का भी अवतार सतयुग एवं त्रेता के सन्धिकाल में हुआ है। उस समय पृथ्वी पर उथल-पुथल व अव्यवस्था व्याप्त थी। ऋषियों के आश्रम जलाये जा रहे थे आए दिन राक्षस देवताओं पर आक्रमण कर रहे थे। उनका आतंक बढ़ता जा रहा था तथा दूसरी ओर कार्कोटक नाग का आतंक भी मानव समाज के लिए खतरा पैदा कर रहा था। अत्रि ऋषि के पुत्र दत्तात्रेय जो विष्णु के अंश के अवतार थे उनके पास मौजूद तंत्र-मंत्र विद्या, ज्ञान व अनुसंधान का भी मानव कल्याण के लिए प्रचार व प्रसार करने के लिए आवश्यक थी।

ऐसी विषम परिस्थिति में भगवान सहस्रार्जुन का सुदर्शन चक्र अवतार हुआ। भगवान सहस्रार्जुन ने जहाँ एक ओर रावण का मद मर्दन किया वहीं कार्कोटक आदि नागों का अंत करके मानव जाति को भय मुक्त कराया एवं तंत्र मंत्र विद्या का प्रचार व प्रसार करके बैकुंठ गए।

कल्पना के आधार पर

सतयुग का अवसान सन्निकट था। भगवान विष्णु शेष नाग पर विराजमान माता लक्ष्मी के साथ आँख मूंद कर पृथ्वी पर हो रहे उस समय की उठापटक के विषय में चिंता मग्न थे। मानव कल्याण के लिए विचार कर रहे थे कि अत्रि ऋषि के पुत्र दत्तात्रेय ने भगवान विष्णु से भेंट कर उनसे आग्रह किया कि हे भगवान! आप त्रिदेवों के आशीर्वाद से धरोहर के रूप में जो परम ज्ञान, तंत्र मंत्र, विद्या एवं गुण मुझमें समाहित है, क्या उसे अब धरती पर मानव कल्याण केलिए प्रचारित करने का समय आ गया है? भगवान विष्णु मुस्कुराते हैं और कहते हैं-ऋषिवर ! समय की प्रतीक्षा करें। ऋषिवर भगवान विष्णु को प्रणाम कर आश्रम वापस जाते हैं।

इसी बीच भगवान विष्णु के साथ विराजमान सुदर्शन चक्र ने भगवान विष्णु से कहा- हे प्रभु! आप के इशारे पर मैं नाचता हुआ आपका प्रत्येक आदेश मानता हूं। मेरे मन में पृथ्वी पर विचरण करने की लालसा जागृत हुई है। क्या पृथ्वी पर कुछ करने के लिए हमें भेजने का अब समय आ चुका है। भगवान विष्णु मुस्कुराते हुए कहते हैं- समय की प्रतीक्षा करो।

इसी क्रम में भगवान विष्णु से सुदर्शन चक्र ने आग्रह किया कि प्रभु ! आप जब स्वयं धरती पर आएंगे तो मैं आपके साथ समाहित हो जाऊंगा अर्थात आप को हमें धरती से वापस लाने के लिए स्वयं अवतार लेना होगा।

आगे की कथा को जानने के लिए इस पुरी पुस्तक को पढ़ें………………………………..

भगवान राजराजेश्वर कार्तवीर्य सहस्रार्जुन

भगवान राजराजेश्वर कार्तवीर्य सहस्रार्जुन के विषय में जानने के लिए विभिन्न पुराणों के पन्नों को पलट कर देखें। बात उस समय की है जब सतयुग का अवसान सन्निकट था। महाराज यदु के प्रपौत्र महाराज हैहय द्वारा जिस हैहय वंश की स्थापना की गई थी उसके महाप्रतापी एवं प्रजापालक महाराज कृतवीर्य थे। उनकी राजधानी महिष्मती जो वर्तमान में महेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हैं, मध्यप्रदेश के इंदौर जिले से नब्बे किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। महेश्वर खरगोन जिले में पड़ता है। यहां तहसील मुख्यालय है। सड़क मार्ग इंदौर से सुगमता से उपलब्ध है। यह वही महिष्मती है जिसे महाराज हैहय के बाद की पीढ़ियों के महाराज महिष्मान ने स्थापित की थी। महिष्मान के बाद भद्रसेन फिर दुर्दभ और दुर्दम के पुत्र कनक हुए। महाराज कातवीर्य इन्हीं कनक के पुत्र थे। कनक को विभिन्न पुराणों में धनक भी कहा गया है। महाराज कार्तवीर्य महाप्रतापी एवं प्रजापालक राजा थे साथ ही भगवान विष्णु के परम भक्त भी। सब कुछ होते हुए भी राजा का कोई उत्तराधिकारी नहीं था। इसी वजह से राजा दुःखी रहा करते थे। एक दिन संपूर्ण वैभव तथा राजपाट छोड़कर वे गंधमादन गिरि पर जा पहुंचे और एकनिष्ठ भाव से भगवान विष्णु की तपस्या करने लगे। वर्षों की कठोर तपस्या के पश्चात प्रकट हुए और राजा से कहा- "हे राजन! तुम जिस प्रयोजन से तप-रत हो वह पूर्ण होगा। तुम्हें एक अलौकिक पुत्र की प्राप्ति होगी जो धर्मनिष्ठ, दानी एवं गूढ़ रहस्यों का पारंगत होगा। शूरवीर, महाप्रतापी, प्रजापालक एवं हैहय वंश का नाम युगों-युगों तक प्रकाशित करेगा। उसकी पूजा करने से दरिद्रता दूर होगी, जो महादानी व बात का धनी होगा। उसका नाम युगों-युगों तक दैदीप्यमान रहेगा। उस महाप्रतापी को स्वर्ग लाने के लिए मैं स्वयं अवतार लूंगा। द्वापर युग में और कलयुग उसकी पूजा होगी। तुम वापस जाकर अपना राजपाट संभालो।"

इतना कहकर विष्णु भगवान अंतर्ध्यान हो गए। राजा लौट आए । महारानी पद्मिनी उनकी पटरानी थीं । यह सूर्यवंश महाराजा सत्यवादी हरिश्चंद्र की पुत्री थीं। महाराजा ने पदिनी से भगवान विष्णु के प्रकट होकर आशीर्वाद देने की बात बताई। पद्मिनी खुशी से फूली नहीं समा रही थीं।

भगवान के प्रकट होने एवं आशीर्वाद देने की तिथि के विषय में पुराणों में घनाष्टमी का उल्लेख प्राप्त होता है। ऐसी मान्यता है कि घनाष्टमी के दिन जिन परिवार में पुत्र उत्पन्न नहीं होते, व्रत रखने से भगवान विष्णु प्रकट होकर आशीर्वाद देते हैं और उनके आशीर्वाद से पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है, परंतु पुराणों में किस मास के घानाष्टमी के दिन व्रत रखा जाए, स्पष्ट नहीं है। इसलिए प्रत्येक मास के दोनों अष्टमी पर व्रत रखना श्रेष्यकर होगा।

कुछ समय पश्चात महारानी पद्मिनी ने गर्भ धारण किया। संपूर्ण महिष्मती में मानो फूलों की वर्षा हो रही हो। महाराज कार्तवीर्य खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। उन्होंने सभी याचकों को तृप्त कर दिया। ब्राह्मणों, पक्षियों को सब तरह से संतुष्ट किया। स्थान-स्थान पर यज्ञ और हवन की व्यवस्था की गई सपुर्ण महिष्मती में अलौकिक वातवरण हो गया।

समय आने पर कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन रविवार ब्रह्म मुहूर्त में एक दिव्य बालक ने जन्म लिया। शीतल, मंद, सुगंधित समीर पुरी महिष्मती को आनंदातिरेक से भर रही थी। श्रवण नक्षत्र में जिस बालक ने जन्म लिया था, वह कोई और नहीं स्वयं भगवान चक्र सुदर्शन ने ही अवतार लिया था।

महाराज कार्तवीर्य की खुशी का ठिकाना न था। सभी याचकों को अयाचक बना दिया। दिव्य बालक के जन्म के अवसर पर ऋषियों-मुनियों ने मंगल गीत गाए। देवताओं ने पुष्प वर्षा करके बालक का स्वागत किया महिष्मती का ऐसा आलौकिक वातावरण कभी देखने को नहीं मिला था। सभी ओर प्रसन्नता व्याप्त हुई। प्रजा भी खुशी से फूली नहीं समा रही थी। बालक की किलकारी से राजमहल गुंजायमान होता था। कुछ दिनों के बाद बालक ने जब चलना शरू किया तो उनकी चाल मदमस्त हाथी के सम्मान थी।ठुमुक कर चलना राजमहल में आलौकिक आनंद भर रहा था। बालक की हंसी-ठिठोली से पूरा राजमहल आनंदित था। महल का खिलौना था अद्भुत बालक। उसकी किलकारी से सभी आनंदित होते थे। चहुँ ओर खुशी एवं संपन्नता व्याप्त हो रही थी।

बड़े होने पर नामकरण संस्कार में महाराजा ने दिल खोलकर दान दिया और यज्ञ आदि संपन्न कराया। महामुनि गर्ग को बुलाकर नामकरण संस्कार संपन्न कराया। महामुनि गर्ग ने बालक का नाम अर्जुन रखा । कार्तवीर्य का पुत्र होने के कारण उन्हें कार्तवीर्य अर्जुन भी कहा गया है। नामकरण संस्कार के समय पूरी महिष्मती खुशी से नहीं समा रही थी। हर ओर हवन यज्ञ का माहौल था। सभी खुश एवं संतुष्ट थे। पूरी महिष्मती आनंदित थी। पताके एवं तोरणद्वार द्वारा महिष्मती सजाई गई थी। शहनाई से नर्मदा का पावन तट भाव विभोर हो रहा था। नर्मदा के जल के हिलकोरे से निकलने वाली आवाज भी इस खुशी एवं प्रसन्नता के वातावरण में चार चांद लगाकर सभी को सम्मोहित कर रही थी। पूरे राजमहल एवं महिष्मती में मंगल गीत गाए जा रहे थे ढोल-नगाड़े की ध्वनि से ब्रह्मांड गुंजित था। महाराजा कार्तवीर्य ने गर्ग ऋषि के परामर्श से कुछ वर्षों के पश्चात अर्जुन को अत्रि ऋषि के परम तेजस्वी पुत्र भगवान दत्तात्रेय जो विष्णु के अवतार थे, के पास शिष्यत्व के लिए भेजा। दत्तात्रेय का शिष्यत्व प्राप्त करना आसान नहीं था परंतु दत्तात्रेय ऋषि ने अर्जुन को देखते ही उनकेअलौकिक स्वरूप एवं व्यक्तित्व को पहचान व समझ कर अपना शिष्य बना लिया। अर्जुन ने भगवान दत्तात्रेय की अटूट तपस्या और सेवा की । दत्तात्रेय ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव तीनों के स्वरूप में थे भगवान दत्तात्रेय अर्जुन के पराक्रम, वैभव एवं शक्ति से अत्यधिक प्रसन्न हुए और उन्होंने अर्जुन को तंत्र मंत्र का परम ज्ञान एवं गूढ़ रहस्यों को समझाया एवं खोई हुई वस्तु को प्राप्त करने का विधान बताया। यह भी बताया कि दूसरे के मन की बात कैसे जानी जाती है। सामने वाले को किस प्रकार से वशीभूत करके अपने वश में किया जाता है। शिष्यत्व समाप्त कर वापस आते समय भगवान शिव का दुर्लभ कवच व कुंडल दान में दिया। यह भी बता दिया कि जब तक तुम इसे धारण रखोगे तो कोई परास्त नहीं कर सकता। तुम अजेय रहोगे उन्होंने वर मांगने के लिए कहा।

कार्तवीर्य अर्जुन ने कहा- "देव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसी उत्तम ऐश्वर्य शक्ति प्रदान कीजिए, जिससे (1) मैं प्रजा का पालन करूं । (2) अधर्म का भागी न बने । (3) मैं दूसरों के मन की बात जान लूं ।(4) युद्ध में कोई मेरा सामना न कर सके। (5) युद्ध करते समय मुझे एक हजार भुजाएं प्राप्त हो, किंतु वे इतनी हल्की हों जिससे मेरे शरीर पर भार न पड़े।(6) पर्वत, आकाश, जल, पृथ्वी और पाताल में मेरी अवाध गति हो। (7) मेरी मृत्य, मेरी अपेक्षा श्रेष्ठ पुरुष के हाथ से हो। (8) यदि कभी मैं कुमार्ग में प्रवृत्त होऊँ तो मुझे सन्मार्ग दिखाने वाला उपदेशक प्राप्त हो। (9) मुझे श्रेष्ठ अतिथि प्राप्त हो। (10) निरंतर दान करते रहने पर भी मेरा धन कभी क्षीण न हो। (11) मेरे स्मरण करने मात्र से संपूर्ण राष्ट्र में धन का अभाव दूर हो जाए तथा (12) आप में मेरी अनन्य भक्ति बनी रहे।"

दत्तात्रेय जी बोले-"तुमने जो-जो वर मांगे हैं, वे सब तुम्हें प्राप्त होंगे। तुम मेरे आशीर्वाद से चक्रवर्ती सम्राट बनो सैकड़ों राजा तुम्हारे आधिपत्य में रहेंगे।" दत्तात्रेय ने अर्जुन को तंत्र मंत्र का अटूट ज्ञान दिया और खोई हुई वस्तु को खोजने की सिद्धि का विधान भी बताया। ऐसे महत्वपूर्ण तांत्रिक सिद्धविधान को सिखाया जो मानव कल्याण के लिए उपयोगी हो। हर ज्ञान से पारंगत एवं श्रेष्ठ विद्या ग्रहण कर गुरु को बारंबार प्रणाम करके अर्जुन राजमहल आ गए। कई पुराणों में दत्तात्रेय और सहस्रार्जुन को तंत्र मंत्र का जनक कहा गया है।

राजकुंवर की उम्र होने पर संपूर्ण विधि विधान से कार्तवीर्य अर्जुन का राजतिलक संपन्न किया गया। इस अवसर पर सैकड़ों राजा-महाराजा सम्मिलित हुए। ऋषि-मुनि आमंत्रित किए गए एवं यज्ञ-अनुष्ठान संपन्न हुए। संपूर्ण महिष्मती में बड़े-बड़े तोरणद्वारों से सजावट की गई। शहनाई, ढोल, नगाड़े परिपूर्ण सुखद वातावरण में खूब दान-यज्ञ आदि संपन्न हुआ। राजतिलक के समय ही अर्जुन ने घोषणा किया कि उनके दरबार में जो कोई भी आएगा खाली नहीं लौटेगा। ऐसे सुखद वातावरण में अर्जुन राजपाट संभाला।

महाराजा ने अपने राज्य में कृषि पर विशेष सुधार किया। जंगलों को खेती योग्य भूमि में तैयार करवाया एवं खेती लिए सारी सुविधा उपलब्ध कराकर अपने राज्य में सुख एवं संपन्नता का वातावरण का निर्माण किया | महाराज ने कई नहरों एवं पोखरों को प्रजा के हित में खेती के सिंचाई के उद्देश्य से बनवाया। इसी क्रम में बदायूं में सहसवान नदी उल्लेख विभिन्न पुस्तकों मिलता है। पूरी अर्थव्यवस्था खेती पर निर्भर थी। किसान पूरी तरह संपन्न खुश थे। जब जहां बारिश की कमी महसूस होती थी, महाराज स्वयं बारिश कराकर प्रजा के खेत को सूखने से बचाते थे। पूरे राज्य खेती वाली आमदनी का एक अंश मात्र कर के रूप राज कोष जमा होता अधिकांश प्रजा ईमानदारी से कर जमा करती थी। महाराजा शासन काल नौकाओं से व्यापार दूर-दूर तक होता था। बड़ी-बड़ी नौकाएं जल मार्ग स्थान से दूसरे स्थान तक विचरण करती थी। हर ओर सुख समृद्धि संपन्नता व्याप्त थी।

महाराजा ने तंत्र मंत्र ज्ञान का राजकीय संरक्षण देकर बढ़ावा दिया। आश्रमों में तंत्र-मंत्र विद्या का प्रयोग होता तथा महाराजा स्वयं ऐसे कार्यक्रमों में सहभागी बनते थे। महाराजा को तंत्र-मंत्र महारत हासिल में का प्रचार प्रसार राज्य से हुआ था। जगह जगह यज्ञ –हवन के बिच तंत्र-मंत्र का अनुसन्धान होता था| आज भी उन्हें तंत्र मंत्र का जनक कहा जाता है| हर तांत्रिक सर्वप्रथम इनकी पूजा कर के ही तंत्र सधाना करता है|

वैवाहिक उम्र प्राप्त होने पर उनका विवाह लक्ष्मी के अंश से उत्पन्न दीप्तिमती से हुआ| इक्ष्वाकु वंशी राजा रेणु की पुत्री सत्या भी उनकी पत्नी थीं चूंकि सत्या की बहन रेणुका का विवाह ऋषि जमदग्नि से हुआ था, इस नाते जमदग्नि कार्तवीर्य अर्जुन के सम्बन्धी थे। महारानी मनोरमा कार्तवीर्य अर्जुन की पटरानी थीं। पूरा राजमहल सुखद वातावरण से परिपूर्ण था। पूरी महिष्मती दीपों से जगजमा रही थी। हर घर में बाहर प्रजा दीप जलाकर इस अलौकिक वैवाहिक संस्कार में सम्मलित हुई। हर ओर खुशी एवं संपन्नता थी वैवाहिक समारोह में देवताओं ने दुंदुभी बजाकर आशीर्वाद दिया और दिव्य व शुभ मुहूर्त में वैवाहिक संस्कार पूर्ण हुआ। नई नवेली बहू के साथ जब महाराजा अर्जुन की पालकी राजमहल के द्वार पर आई पद्मिनी ने अपने राजकुमार तथा बहू की आरती उतार कर स्वागत किया एवं राजमहल में ले गई। पूरे राजमहल में हर ओर खुशी एवं प्रसन्नता का माहौल था। महाराजा कार्तवीर्य व सभी दासियां खुशी से फूले नहीं समा रही थी। नर्मदा भी खुशी के मारे अपने नई-नवेली बहू के दर्शन के लिए हिलकोरे लेकर तीव्र गति से बहने लगी। अग्नि देवता भी महिष्मती में स्वयं हवन में प्रकट हुए और पूरे महिष्मती में सैकड़ों स्थान पर हवन-यज्ञ संपन्न हुआ और मुनियों और ऋषियों ने इस वैवाहिक समारोह में आशीर्वाद दिया।

जल्दी ही उनकी गौरव गाथा दिगदिगंत तक फैल गई। उन्होंने अपने पराक्रम के बलपर तीस देशों को अपने अधीन कर लिया। वे चक्रवर्ती सम्राट हुए। वे राजा राजेश्वर हुए क्योंकि उन्होंने सैकड़ों राजाओं को परास्त किया था और उनका राजपाट अपने राज्य में मिला लिया था। आकाश, पाताल, पृथ्वी तथा जल सभी में उनकी पहुंच थी। कहीं कोई अभाव या कमी नहीं थी। हर ओर संपन्नता व्याप्त थी प्रतीत होता है कि वर्तमान संघीय व्यवस्था की शुरूआत इन्हीं के समय हुई है, क्योंकि जितने भी राज्यों को महाराजा ने जीता उनसे वैमनस्य या कटुता के स्थान पर मैत्री संबंध बनाकर अपना प्रभुत्व स्वीकार कराया।

एक बार जल क्रीड़ा करते समय अपनी विशाल भुजाओं से उन्होंने नर्मदा बांध दिया था। नदी की दिशा विपरीत हो गई और उसमें बाढ़ सी आ गई। कुछ दूरी पर नर्मदा के पावन तट पर ही रावण भगवान शिव की पूजा कर रहा था। पूजा लंकापति रावण का फूल पानी में बह गया। पता लगने पर रावण क्रोधित हुआ और उसने कार्तवीर्य अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा और दोनों में भीषण महायुद्ध हुआ और यह घनघोर युद्ध कई दिनों तक चला, अंत में कार्तवीर्य अर्जुन ने रावण को बंदी बना लिया और दशशीष रावन को महिष्मती में घुमाया अंत में अपने बंदी गृह में बंद कर दिया। कुछ पुस्तकों में इस प्रकरण कर उल्लेख कुछ इस प्रकार मिलता है कि महाराज कार्तवीर्य अर्जुन ने हंसी-हंसी में बिना युद्ध किए राजा रावण को लपक कर पकड़ लिया और बिना युद्ध के ही बंदी बना लिया और पुन: जल क्रीड़ा में रत हो गए। बाद में रावण के पितामह पुलस्त्य ऋषि ने महाराज कार्तवीर्य अर्जुन से अनुनय विनय किया और उनके विशेष अनुरोध पर रावण को छोड़ दिया किंतु यह वचन भी लिया कि भविष्य में रावण उनके राज्य के ईद-गिर्द दिखाई भी न दे। रावण को अपने मुकुट में हैहय वंश का प्रतीक अश्व को स्थापित करने के कहा और रावण ने ऐसा ही किया। यह वही रावण है जिससे इंद्र भी डरते थे।

आज महाराज कार्तवीर्य अर्जुन के समक्ष रावण नतमस्तक होकर शर्मिंदगी महसूस करते हुए लंका को प्रस्थान कर गया। आज भी रावण के मुकुट में हैहय वंश का अश्व बना रहता है, जो इस बात का प्रतीक है कि रावण हैहय वंश की प्रभुता को स्वीकार कर चुका है। महाराजा कार्तवीर्य अर्जुन ने नागों के मुखिया कार्कोटक को भी परास्त किया था। नागजाति उस समय मानव जीवन के लिए खतरा थे। बार-बार महिष्मती पर आक्रमण करके कब्जा करना चाहते थे। यद्यपि नाग जाति के लोग बहुत वीर और योद्धा थे, परंतु महाराज ने उन्हें भी अपने वश में किया। इस युद्ध में कार्तवीर्य अर्जुन ने बहुत शक्तिशाली युद्ध-कौशल, पराक्रम एवं शक्ति का परिचय देकर नागों के मुखिया को हराया था।

उनकी वीरता एवं शासन प्रबंध की चर्चा देवलोक तक थी। नारद ऋषिगण उनका गुणगान करते थे। वे तंत्र-मंत्र के भी परम आचार्य थे खोई हुई वस्तुओं को पुनः प्राप्त करने के लिए आज भी तांत्रिक मुख्य रूप से उन्हीं की विद्या का प्रयोग करते हैं। ऐसा राजा पाकर प्रजा बहुत खुशहाल थी। चारों ओर अमन चैन था। उनके वैभव व शक्ति का प्रचार चारों ओर हो चुका था। हर ओर सुख, शांति, समृद्धि और संपन्नता थी। उनके सौ से अधिक पुत्र हुए। जिनके वंशजों ने कालांतर में हैहय वंश व कलचुरी वंश के नाम से शासन किया। भगवान अग्नि इनके राज्य में सदैव विराजमान रहते थे क्योंकि सदैव राज्यभर में हवन-यज्ञ कहीं न कहीं होता रहता था और भगवान अग्नि देव की कृपा पूरे राज्य पर बनी रहती थी।

लेकिन समाज में एक ऐसा वर्ग भी था, जो अंदर ही अंदर जलता था। राज पुरोहित होने के नाते भृगुओं को राजा ने अकूत संपत्ति दान दी थी फिर भी वे राज्य-कर नहीं देना चाहते थे। भृगुओं के नेता ऋषि जमदग्नि थे। राजा ने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन वे नहीं माने और युद्ध की चुनौती दे डाली। यह खुलेआम बगावत थी। भृगुओं के साथ सूर्यवंशी, मगध, काशी तथा अन्य अनेक राजा भी मिल गए। युद्ध में जमदग्नि ऋषि का वध हो गया। उस समय जमदग्नि पुत्र परशुराम पुष्कर में थे इनका वास्तविक नाम राम है, जिन्होंने कालांतर में अपना अस्त्र फरसा धारण कर लिया। इसलिए वे परशुराम कहलाए। लौटने पर अपने पिता के शरीर पर 21 घाव देखे। परशुराम इस घटना से अत्यधिक क्रोधित हुए और धरती को क्षत्रिय विहीन करने का प्रण लिया। उनका कार्तवीर्य अर्जुन से घनघोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में ब्रह्मास्त्र का भी प्रयोग हुआ। तरह-तरह के बाणों का प्रयोग परशुराम ने किया परंतु कोई भी परास्त नहीं हो रहा था क्योंकि दोनों महायोद्धा थे। हार-जीत न होने पर भयंकर स्थिति उत्पन्न हुई। आकाश-पाताल में विष कौतूहल थे और कोई परास्त नहीं हो रहा था। यह महायुद्ध दिनों, महीनों एवं वर्षों में समाप्त होने वाला नहीं था। यह महायुद्ध दशकों तक चला, परंतु हैहय वंशी हार नहीं मानें। इस महायुद्ध में परशुराम ने सर्प बाण का प्रयोग किया जिसे सहस्रबाहु अर्जुन ने गरुड़ बाण द्वारा शांत कर दिया। परशुराम ने अग्नि बाण का प्रयोग किया, जिसे राजराजेश्वर ने जल बाण द्वारा शांत कर दिया। इस भयानक युद्ध से परशुराम विचलित हो उठे।

महान कवि कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश में इस स्थिति का वर्णन कुछ इस प्रकार लिखकर किया है कि युद्ध में क्षत्रियों के कालरात्रि परशुराम के फरसे की तीखी धार भी अग्नि देव की कृपा पाकर कमल पत्र की कोमल धार तुल्य हो जाती थी।

परशुराम का धैर्य जवाब दे रहा था। यह महासंग्राम इतना विकराल था कि हर ओर हाहाकार मच रहा था। यह महासंग्राम कई दशकों तक चला क्योंकि दोनों ओर से देव शक्तियां लड़ रहीं थीं ऐसी विकराल स्थिति पैदा हो गई थी कि कोई पीछे हटने को तैयार नहीं था और मरने-मारने पर कटिबद्ध थे। एक ओर प्रजापालक शूरवीर धर्मरक्षक महादानी धर्मप्रवृत्ति के योद्धा थे तो दूसरी ओर परशुररुम भृगुओं के साथ पिता की हत्या का बदला देने के लिए कटिवद्ध थे। पूरे क्षत्रिय समाज को धरती विहीन करने का प्रण लिए लड़ रहे थे। यह कैसी विडंबना थी कि एक ओर दत्तात्रेय के शिष्य जो उनके वरदान से गूढ़ रहस्यों के ज्ञाता थे, को परशुराम ने अपने पिता की हत्या का अपराधी मानकर पूरे क्षत्रिय समाज को धरती विहीन करने का प्रण ले लिया था ऐसी भयानक स्थिति पैदा थी कि किसी भी पल पूरा आकाश-पाताल किसी भयानक आपदा का शिकार होने वाला है। आकाश-पाताल में विषम कौतूहल था। दोनों महायोद्धा एक-दूसरे को नीचा दिखाने पर कटिबद्ध थे कोई परास्त नहीं हो रहा था। और अंत में परशुराम शिव की शरण में गए और शिव ने उन्हें बताया कि अर्जुन ने अपने दाहिने हाथ में कवच में कुंडल धारण कर रखा है, इसलिए वो अजेय है। कबीर ने भी अपने 'बीजक' में लिखा है- 'परशुराम क्षत्री नहिं मारे, छल माया कीन्हें। अर्थात परशुराम छल एवं माया का सहारा लेकर भी क्षत्रिय (सहस्रबाहु) को नहीं मार सके।

शिव ने ब्राह्मण का रूप धारण करके अर्जुन के समक्ष जाकर वो कवच व कुंडल दान में मांगा। ब्राह्मण रूप शिव को देखकर सहस्रार्जुन को यह ज्ञात हो गया कि यह ब्राह्मण नहीं स्वयं शिव इस रूप में हमारे बाचक हैं। उन्होंने उनको प्रणाम किया और विनम्रता पूर्वक अपना कवच व कुंडल उन्हें दान में दे दिया। ज्ञात हो कि अर्जुन को यह कवच कुंडल देने में कोई भी कष्ट नहीं हुअ क्योंकि उन्हें तुरंत यह आभास हो गया था कि अब उन्हें बैकुण्ड जाना है। इसी कारण ब्राह्मण रूप में शिव उनके सामने याचक हैं। ब्राह्मण रूपी शिव आशीर्वाद देकर उन्हें बैठने चलने का निमंत्रण देने आए हैं।

कार्तवीर्य अर्जुन पुनः युद्ध में रात हो गए। कई पुराणों में यह कवच कुंडल शिव का होना बताया गया है, जो कार्तवीर्य अर्जुन महाराज ने ब्राह्मण रूपी शिव को दान में दिया था।

कवच व कुंडल दान में देने के बाद सहस्रअर्जुन की शक्ति साधारण योद्धा के रूप में हो गई। पूरे युद्ध कौशल एवं वीरता से संघर्ष करते समय परशुराम ने छल करके कार्तवीर्य अर्जुन महाराज की हत्या कर दिया और वे वीर गति को प्राप्त हुए।

इस महायुद्ध का उल्लेख सभी पुराणों में विस्तार से उल्लेख किया गया है। यह युद्ध उस युग का सबसे भयानक महायुद्ध था। महान योद्धा एवं प्रजापालक को छल कर उनकी हत्या की गई। यह महासंग्राम धरती पर लड़े गए महासंग्रामों में अंकित है। महिषासुर संग्राम, परशुराम सहस्रबाहु संग्राम, महाभारत का कौरव-पांडव संग्राम, राम-रावण संग्राम महासंग्रामों में अंकित है।

परशुराम से युद्ध का कारण कई पुराणों में ये भी उल्लिखित है कि एक कामधेनु नाम की गाय ऋषि जमदग्नि के पास थी, जिसे महाराज लेना चाहते थे। एक बार महाराज आखेट करते-करते बहुत दूर तक जंगल में निकल गए। वापस आते-आते अंधेरा होने लगा। मंत्री ने बताया कि नजदीक ही ऋषि जमदग्नि का आश्रम है। रात्रि यहीं विश्राम करना उचित होगा महाराज ने अंधेरा होते देख मंत्री की बात पर सहमति दी और सैनिक ने ऋषि जमदग्नि को महाराज के आगमन की सूचना दी।

ऋषि जमदग्नि ने औपचारिक अभिवादन किया और सारे सैनिकों एवं महाराज तथा मंत्री को भोजन के लिए आमंत्रित किया। तब तक मंत्री ने पता लगा लिया था कि आश्रम में इतने लोगों के भोजन आदि की व्यवस्था नहीं है। फिर भी महाराज एवं सारे सैनिक और मंत्री को भोजन के लिए बैठा दिए गए। जमदग्नि ऋषि ने कामधेनु से आग्रह कर आए हुए अतिथियों को भोजन कराकर तृप्त किया। रात्रि विश्राम के बाद सुबह जाते समय मंत्री ने महाराज से कामधेनु गाय की विशेषता का उल्लेख किया। महाराज ने कामधेनु गाय ले चलने के लिए आदेश दे दिया। ऋषि कामधेनु गाय नहीं देना चाहते थे। कामधेनु के लिए महाराज से महासंग्राम हुआ और इन महासंग्राम में ऋषि की हत्या हो गई, परंतु कामधेनु हाथ न आई और वे आकश की ओर उड़ गई। उसी ने आकाशवाणी करके यह सहस्रार्जुन को जता दिया कि अब उसका अंत नजदीक है। अंत में छल के द्वारा कार्तवीर्य अर्जुन को मार दिया गया। उनके साथ उनकी पत्नी मनोरमा भी बैकुंठ गई जहां लक्ष्मी ने अपनी पुत्री एवं दामाद कार्तवीर्य अर्जुन का स्वागत किया। अन्य रानियां एवं पटरानियां सती हुई।

कई पुराणों में भार्गवों से सहस्रबाहु की शत्रुता का कारण कुछ इस प्रकार उल्लेखित है कि एक बार अग्नि देव ने महाराज के भक्षण के लिए कुछ मांगा। राजा ने उन्हें बाण के अग्र भाग में बैठाकर जंगल की ओर छोड़ दिया, जिससे काफी जंगल का भाग पेड़-फलों आदि जल गया। इसी में अज्ञानतावश आपव ऋषि का आश्रम भी जल गया। चूंकि उस समय ऋषि जल समाधि में तपरत थे। जब वे वापस आए और उन्होंने अपना आश्रम जला देखा तो अत्यधिक क्रोधित हुए और उन्होंने राजा को श्राप दिया कि तुम ब्रह्म हत्या के अपराध में वीरगति को प्राप्त होगा चूंकि महाराजा ने जान-बूझकर आश्रम को नहीं जलाया था, इसलिए वे इस श्राप को विशेष महत्व नहीं दिए। परंतु कालांतर में अपनी तंत्र विद्या द्वारा जान लिए कि ऋषि ने उन्हें अनजाने में जो श्राप दे दिया है उसका कोई निदान नहीं है। उन्हें अब बैकुंठ जाना ही है। उनके अवतार का उद्देश्य अब पूर्ण हो चुका है।

कई पुराणों में कामधेनु गाय का प्रसंग कुछ इस प्रकार उल्लेखित है कि राजा के पुत्रों ने बिना महाराज की जानकारी के कामधेनु गाय हांक लिया, जिसे वापस पाने के लिए जमदग्नि ऋषि से संघर्ष हो गया। राजा के मंत्री द्वारा जमदग्नि ऋषि की हत्या कर दी गई।

कई पुराणों में यह उल्लेख है कि जब उन्हें ज्ञात हो गया कि उन्हें अब बैकुंठ जाना है तब उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र जयध्वज का राज्यारोहण कर उसे महाराजा बना दिया और स्वयं नर्मदा के पावन तट पर शिवलिंग में विलिन हो गए। वर्तमान में यह एक शिव मंदिर के रूप में महेश्वर (महिष्मती) में मौजूद है, जिसमें 11 घी के दीप अनादि काल से जल रहे हैं। ऐसी मान्यता है कि रावण वध के बाद जब पूरे देश में दीप जलाकर दीपावली मनाई जा रही थी उस समय से अखंड ज्योति जल रही है। ऐसी मान्यता है कि जल रहे दीपक दर्शन से भी भगवान सहस्रबाहु आशीर्वाद प्रदान करते हैं और धन-धान्य से परिपूर्ण करते हैं।

जयध्वज ने कालांतर में अपनी राजधानी बनारस (गुप्तकाशी) में अंतरित किया और अंत में बहादुरी से संघर्ष करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।

बहुत दुख की घड़ी थी। भगवान सहस्रबाहु अर्जुन के परास्त होते ही हैहय क्षत्रियों का पराभव शुरू हो गया। राज्य छिन गया। लोग दूर-दूर तक पलायन कर गए। राज्य पुनः प्राप्ति की अनेक कोशिशें व्यर्थ गई। सूर्यवंशी, मगध, काशी तथा अन्य अनेक राजा पहले ही विद्रोह कर चुके थे पूरा राज-पाट वसाम्राज्य बिखर गया। यद्यपि कलचुरि वंश के अभ्युदय के साथ कुछ एकता एवं संगठन का प्रयास हुआ परंतु बार-बार भृगुओं के आक्रमण से एवं परशुराम के धरती को क्षत्रिय विहीन करने के प्रण के क्रम में हार होती गई और जान बचाना मुश्किल हुआ। विषम परिस्थिति में महाराजा के पुत्रों ने भी युद्ध किया परंतु सभी मारे गए। उनकी संतानों एवं वंशों के लोग कई हजार की संख्या थे, क्योंकि सहस्र अर्जुन के सौ पुत्र थे। उन सब के कुनबे में असंख्य सदस्य थे। ऐसी भयानक स्थिति में जहां एक ओर राज-पाट छिन चुका था, राजा मारे जा चुके थे, जान बचाना असंभव था, वहीं दूसरी ओर परशुराम द्वारा धरती को क्षत्रिय विहीन करने का प्रण। सभी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए सक्षम नहीं हो पा रहे थे क्षत्रियों एवं भार्गवों से छिड़े युद्ध में क्षत्रिय पराजित नहीं हो रहे थे। क्योंकि यदि पहले युद्ध में ही क्षत्रिय पराजित हो जाते तो दूसरे या बाद के युद्धों की आवश्यकता नहीं पड़ती और 21 बार परशुराम को युद्ध न करना पड़ता। हर पल भृगुओं एवं भार्गवों द्वारा हत्या का भय सता रहा था। जीवित रहने के लिए जान बचाने का स्थान खोजना जरूरी था। उस परिस्थिति में जंगलों की ओर पलायन करना मजबूरी थी। राजपरिवार राज सुख से वंचित जंगलों एवं पर्वत की कंदराओं में जान बचाने के लिए मारे-मार फिर रहे थे। जंगलों में भटकते हुए पूरा कुनबा अलग होकर छिन्न-भिन्न हो गया। जंगलों में तरह-तरह के फल, जड़ीबूटी का भक्षण किया गया| अंत में अनजाने में जहां ताड़ी और महुवा का जंगल था,हमारे भगवान सहस्रार्जुन के वंशज पहुंचे और महुवा एवं ताड़ी का भी प्रयोग स्वयं करने लगे। व्यवसाय भी अपना लिया।

सहस्रअर्जुन की गौरव गाथा का उल्लेख वाल्मीकि रामायण एवं तुलसीकृत रामायण एवं महाभारत में भी पाया जाता है। सीता स्वयंवर के प्रसंग में जब परशुराम जनकपुरी सीता स्वयंवर स्थल पहुंचते हैं और शिव धनुष टूटा देखकर भड़क उठते हैं और गरजते हैं तभी भगवान राम उन्हें प्रणाम करके शांत करने के उद्देश्य से विनम्रतापूर्वक बताते हैं कि यह धनुष आपके किसी दास ने ही तोड़ा है।

परशुराम और अत्यधिक क्रोधित होते हैं और वे कहते हैं वो दास नहीं हमारा शत्रु है जो सहस्रबाहु के समान बैरी है।

उल्लेख करने का तात्पर्य है कि सहस्र अर्जुन महाप्रतापी राजा थे। उनका सम्मान बराबरी के रूप में अंकित एवं उल्लेखित है क्योंकि शत्रुता बराबरी वाले से होती है। राम सीता त्रेता युग के हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि शायद परशुराम मात्र हैहय वंश के क्षत्रियों को ही अपना शत्रु समझते थे। क्योंकि सीता स्वयंवर में स्वयं भगवान राम क्षत्रिय एवं अन्य गणमान्य राजा गण क्षत्रिय मौजूद थे। उन्होंने उन्हें कोई क्षति नहीं पहुंचाई।

तुलसीकृत रामायण के सुंदरकांड के इक्कीसवें दोहे में जब हनुमानजी को अशोक वाटिका में फल भक्षण के दौरान पकड़ लिया जाता है और रावण के समक्ष पेश किया किया जाता, रावण अपनी बहादुरी का बखान करते नहीं थकता। तभी हनुमानजी कटाक्ष करते हैं कि मैं तुम्हारी बहादुरी और पराक्रम जानता हूँ जब तुमने सहस्रबाहु से युद्ध किया था।

रावण-अंगद संवाद में भी जब रावण अंगद के समक्ष अपने पराक्रम और बहादुर का बखान करता है तो अंगद कहते हैं कि तीन रावणों को जानता हूं-एक वह रावण जिसे सहस्रबाहु ने बंदी बना लिया था और बाद में ऋषि पुलस्त्य ने जाकर छुड़ाया था।

एक वह रावण जिसे बाली ने कखरी में दबा रखा था।

एक वह रावण जो पाताल जीतने गया और वहीं बंदी बन गया।

तुम इन तीनों रावणों में कौर रावण हो? रावण ने अपने को बहुत लज्जित महूसस किया।

उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि कार्तवीर्य अर्जुन की गौरव गाथा त्रेतायुग में भी वर्णित पाई गई है।

महाभारत के शांति एवं अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह जब तीर शय्या पर विराजमान थे और अंतिम सांस ले रहे थे तब उन्होंने युधिष्ठिर को बुलाकर इस धरती पर उनके पूर्व हुए आदर्श राजाओं के गुणों का भी विस्तारपूर्वक एक आदर्श राजा के रूप में उल्लेख किया।

तब तक द्वापर युग आ चुका था। अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जंगलों में ही काफी समय तक रहे। धीरे-धीरे गांव में भी बसना शुरू हो किया। भृगुओं का डर सदा सताता रहता था क्योंकि वे क्षत्रियों के गर्भवती महिलाओं तक की भी हत्या कर देते थे। हमने हीन और छोटा बनकर अपना जीवन यापन किया और गांव के बाहर पेड़ों के नीचे रहकर अपने जीवन को अंजाम देते रहे। जंगलों से लाया महुवा व ताड़ी के व्यापार में लगने पर हम पर समय-समय पर अत्याचार भी हुआ। अत्याचार को सहते हुए अपने अस्तित्व को बचाए रखे। हम क्षत्रिय होतेहुए भी अपनी पहचान को छिपाते हुए कहीं कलवार, कहीं कलाल, कहीं कलार के नाम से जाने जाने लगे। वर्ण व्यवस्था में हम क्षत्रिय होते हुए भी अपने को क्षत्रिय नहीं बता सके और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में हम वैश्य में गिने जाने लगे। चूंकि हम व्यवसाय से जुड़े थे इसलिए वैश्य वर्ण में ही रहना सुरक्षित महसूस हुआ, जो महुवा के अर्क शराब और ताड़ी का व्यवसाय अपनाने के कारण समाज में गिरे और निम्न स्तर के माने जाने लगे समाज के अन्य वर्ग हमें हेय एवं नीचा समझकर सदैव उत्पीड़ित करते रहे। हमें सार्वजनिक कुआं पर चढ़ने से मना किया जाता रहा। हमारा स्पर्श किया हुआ भोजन अन्य जाति के लोग नहीं ग्रहण करते थे। हमें तालाब के नजदीक भी जाने से वर्जित कर दिया था।

चूंकि हमारे शरीर में भगवान सुदर्शन चक्र अवतार का रक्त बह रहा है, इसलिए हम परास्त नहीं हुए। तरक्की के मार्ग पर चलते रहे क्योंकि हम क्षत्रिय थे। कलयुग में हमारा बहुत अपमान हुआ। विभिन्न ग्रंथों में हमको छोटा व नीचा दिखाने का उल्लेख किया गया|

यद्यपि प्राचीन वैभव तो नहीं मिला लेकिन छिटपुट रूप में हैहयों ने अनेक राज्यों की स्थापना की। इनमें कलचुरियों के अलावा महाराज जैसल द्वारा स्थापित जैसलमेर नगर (राजस्थान) विशेष वर्णनीय है। महाराज जयसल से ही जायसवालों का प्रादुर्भवा बताया जाता है। एक अन्य कथन के अनुसार जस्य नाम के राजपुरुष ने जायस नाम की सुरम्य नगरी का निर्माण कराया था। इसी के नाम पर वहां वालों को जयसवाल कहा गया, जो बाद में अन्य स्थानों पर फैल गए। प्रसिद्ध एवं महाप्रतापी राजा जस्सा कलार के वंशजों को कलवार कहा गया। यही हमारी मूल जाति है। स्थान-स्थान पर रहने वाले हैहय क्षत्रियों (कलाकारों) ने अपने अलग-अलग नाम रख लिए थे, जिससे उनकी आपस की पहचान मुश्किल हो गई। इनमें जायसवाल, शिवहरे, गुलहरे, बाथम, अहलूवालिया, चौधरी, राय, चौकसे, नाडार व अन्य नामों के हैं। ये सभी एक ही हैं जो कार्तवीर्य अर्जुन के वंशज हैहय वंशी' हैं। अनेक लोगों ने अपने पेशे बदल लिए। कुछ ने कृषि, कुछ ने उद्योग-धंधे तथा कुछ ने बर्तन बनाने का धंधा अपनाया जो कालांतर में कर्मकार, कसेरा, कौशल व ठठेर कहलाए। अधिकांश ने शराब का व्यवसाय अपना लिया। जो कभी राजा हुआ करते थे, वै वणिक तथा कहीं-कहीं तो दासों की श्रेणी में आ गए।

बिखरी हुई शक्ति से हम अपना पुराना वैभव नहीं प्राप्त कर सकते। आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी बिछड़े हुए हैहय क्षत्रिय कलवार एक हो जाएं तभी हम अपने लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं और अपने कूल देवता कार्तवीर्य अर्जुन के सपनों को साकार कर सकते हैं।

कश्मीर से कन्याकुमारी तक विभिन्न प्रदेशों में कलवार जाति अनेक नामों से रह रहे हैं। यदि इन्हें एकत्र किया जा तो इनकी संख्या अनुमानतः 8-9 करोड़ के आसपस या इससे भी अधिक पहुंचती है। अपने बिखराव के कारण ही हम अभी तक कोई राजनीतिक शक्ति नहीं बन पाए हैं। आज सबसे बड़ी आवश्यकता इसी बिखरी हुई हैहय वंशी एवं कलचुरि वंशियों को एक करने की है। इनमें आपस में रोटी बेटी का रिश्ता प्रारंभ हो चुका है, जिसे और प्रगाढ़ और मजबूत बनाने की आवश्यकता है।

ऐसी मान्यता है कि जो मानव भगवान सहस्रार्जुन की नि:स्वार्थ भाव से पूजा-अर्चना करता है उसका कोई कार्य नहीं रुक सकता। भगवान सहस्रार्जुन एक जागृत देवता है। उनकी पूजा-अर्चना से दरिद्रता का नाश होता है। इनके समक्ष दीप जलाकर पूजा करने से भगवान विष्णु मनवांछित फल प्रदान करते हैं। इनकी जीवन गाथा जो कहता है और सुनता है उसे किसी भी चीज का अभाव नहीं होता। जिस प्रकार सत्यनारायण भगवान की कथा कहने व सुनने से पुण्य लाभ होता है, उसी प्रकार सहस्रार्जुन भगवान की कथा कहने व सुनने से परम पुण्य प्राप्त होता है।

भगवान सहस्रार्जुन के रूप में मानव कल्याण के लिए सुदर्शन चक्र का अवतार हुआ।

कुलदेवता राजराजेश्वर सहस्रार्जुन जी की जय!

हैहय वंश की जय!

भगवान सहस्रार्जुन के जीवन से जुड़ी हुई कुछ मुख्य बातें निम्न है :-

1. इनका जन्म भगवान विष्णु के आशीर्वाद से हुआ था।

2. यह सुदर्शन चक्र के अवतार थे।

3.इनका जन्म कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की सप्तमी को श्रवण नक्षत्र के शुभ मुहूर्त के दिन रविवार प्रातः काल महारानी पद्मिनी के गर्भ से हुआ था। पिता महाराजा कार्तवीर्य थे।

4. इनके गुरु भगवान दत्तात्रेय थे।

5. गुरु ने त्रिदेवों के साथ मिलकर कार्तवीर्य अर्जुन को सहस्रभुज होने का वर दिया था।

6. यह तंत्र मंत्र विद्या के आचार्य थे। खोई हुई वस्तुओं को वापस पाने के लिए तांत्रिक आज भी इन्हीं की विद्या का प्रयोग करते हैं।

7. यह उत्तम प्रजापालक थे।

8. भगवान कार्तवीर्य अर्जुन अव्याहत गति के स्वमी थे और आकाश, पाताल, पृथ्वी कही भी विचरण कर सकते थे ।

9. इनके स्मरण मात्र से संपूर्ण राज्य में धन का अभाव दूर हो जाता था।

10. यह एक चक्रवर्ती सम्राट थे और इन्हें राज राजेश्वर भी कहा जाता है।

11. सहस्रार्जुन स्त्रोतम के अनुसार इन्होंने तीस देशों को जीतकर दस हजार यज्ञ किया।

12. इन्होंने अपनी धनुष की शक्ति से सातों समुद्रों से घिरी पृथ्वी को विजय किया।

13. नागराज कर्कोटक को इन्होंने परास्त किया था।

14. राक्षस राज रावण को बंदी बनाकर अपने घुड़साल में बांध कर रखा था। बाद में ऋषि पुलस्त्य के अनुरोध पर उसे छोड़ दिया था।

15. गुरु दत्तात्रेय ने उन्हें शिव कवच दिया था जिसके कारण यह अजेय थे।

16. परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि जिससे इनका विवाद हुआ था, रिश्ते में इनका साढू भाई लगते थे।

17. बार-बार अनुरोध के बावजूद ऋषि जमदग्नि के कर न देने के कारण युद्ध शुरू हो गया और युद्ध में जमदग्नि की हत्या कर दी गई। कई पुराणों में शत्रुता का कारण कामधेनु गाय प्रकरण बताया जाता है।

18. इस घटना से परशुराम अत्यधिक क्रोधित हो गए और क्षत्रिय कुल के नाश का प्रण किया।

19. अथक प्रयासों के बाद भी परशुराम इन्हें जीत नहीं पाए, तो शंकर जी के शरण में गए। शिव ने ब्राह्मण वेश बनाकर शिव कवच इनसे दान में प्राप्त कर लिया और परशुराम ने छलकर के इनकी हत्या की और वे वीरगति को प्राप्त हुए।

20. कहीं-कहीं शिव कवच को कृष्ण कवच भी कहा गया है।

21. नारदमुनि उनके चरित्र और महिमा को देखकर उनका यशोगान इस प्रकार करते थे

ननन कर्तव्यस्य गतिं यास्यन्ति मानवः।

यज्ञैः दानैश्चं योगैश्च विक्रमेण श्रुतेन च।।"

अर्थात महाराज कार्तवीर्य अर्जुन की तुलना अब कोई भी मानव यज्ञ. दान, तप, विक्रम और विद्या आदि में नहीं करेंगे।

भगवान सहस्रार्जुन जी की आरती

ॐ जय सहसबाहु देवा !

दुःख दारिद्रय विनाशो करते जो सेवा।

ॐ जय सहसबाहु देवा!

चक्र सुदर्शन रूपा तुम सब के स्वामी

तेरी सेवा में हम तेरे अनुगामी

कार्तिक सुदी सप्तमी के दिन जन्मे कुल देवा।

ॐ जय सहसबाहु देवा !

दत्तात्रेय शिष्य प्रभु तुम हो सहसभुजाधारी

धूप दीप नैवेद्य और अक्षत तुम पर वारी

ऋषि मुनि गण गुण गावें नृपति करहि सेवा

ॐ जय सहसबाहु देवा !

रावण मद मर्दन कर जीते सकल भुवन

बने राज राजेश्वर करते सभी नमन

आरती मातु पद्मिनी करतीं अर्पित फल मेवा।

ॐ जय सहसबाहु देवा !

हैहय कुल है आकुल सब की सुधि लीजै

अपने भक्तों को प्रभु अभय सदा दीजै

रक्ष रक्ष प्रभु 'राम लखन' की स्वीकारो सेवा।

ॐ जय सहसबाहु देवा!

दीनबंधु प्रभु सहसबाहु की आरती जो गावे

ऋद्धि सिद्धि घर आएँ लाभ सदा पावे

तेरी कृपा से प्रभुवर पाते सब मेवा।

ॐ जय सहसबाहु देवा!

भगवान सहस्रार्जुन से संबंधित कुछ उपयोगी मंत्र

भगवान सहस्रार्जुन से संबंधित कुछ उपयोगी मंत्र जिनका समुचित ढंग एवं सही उच्चारण करते हुए अनुपालन करने से लाभ उठाया जा सकता है।

1. गुम हुई वस्तु प्राप्त करने का कार्तवीर्यार्जुन मंत्र

कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहु सहस्रवान

तस्य स्मरण मात्रेण हतं नष्टं च लभ्यते।।

2. अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करने के लिए कार्तवीर्यार्जुन मंत्र का प्रयोग जपसंख्या 4 लाख

ॐ हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय

अभीष्ट सिद्धि कामाय नमः।।

3. दुखों के नाश के लिए कार्तवीर्यार्जुन मंत्र प्रयोग जप संख्या एक लाख

ॐ दुःख हर्ता कार्तवीर्यार्जुनाय

सर्वरोग निवारण कामाया नमः।।

4. व्यापार में वृद्धि के लिए कार्तवीर्यार्जुन मंत्र प्रयोग- जप संख्य 1 लाख

ॐ क्लीं कार्तवीर्यार्जुनाय व्यापारकामाय नमः।।

5. रक्षा के लिए कार्तवीर्यार्जुन मंत्र जप संख्या 27

ॐ क्रों कार्तवीर्य महावीर्य पाहिमाम्।

ॐ क्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ।

विस्तृत एवं अधिक मंत्रों की जानकारी के लिए श्री राज राजेश्व कार्तवीर्यार्जुन पुराण खंड-1 लेखक अशोक आनंद के पृष्ठ संख्या 286 से 292 तक पढ़ें और लाभ उठाएं।

।। श्री बलभद्राय नमः।।

भगवान बलभद्र जी

कलवार वंश का अतीत जितना गौरवशाली एवं यशपूर्ण रहा है, उसे जानकर हय कलवार-बंधु का मस्तक गौरव से ऊँचा हो जाना स्वाभाविक है। अतीत का ही दूसरा नाम इतिहास है। कभी-कभी अपना ही इतिहास आश्चर्य में डाल देने वाला होता है। इसलिए नहीं कि वह मानव अनोखा होता बल्कि इसलिए भी कि इतिहास (अतीत) और वर्तमान में जमीन आसमान का अंतर दिखाई पड़ता है। दोनों में समानता तथा एकरूपता प्रतीत नहीं होती। मगर इसमें आचश्चर्य क्या ? ऐसा होता आया है तथा होता रहेगा। यह प्रकृति का शाश्वत नियम है। समय का चक्र-विधान है।

इतिहास साक्षी है, वेद प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि ब्याहुत वंश का उद्गम विश्व भर में चंद्रवंशी क्षत्रिय राजपूत के प्रवर्तक भगवान चंद्र देव के चंद्रवंशीय वृक्ष के शाखाओं एवं प्रशाखाओं से हुआ है। यह वही चंद्रवंशी था, जिसमें राजर्षि प्रवर वि. तपस्वी प्रङ्गव श्री विश्वामित्र पैदा हुए तथा इन्होंने क्षत्रिय होकर भी देय-दुर्लभ ब्राह्मण पद का अधिकारी बन संसार को यह दिखा दिया कि तपस्या के प्रताप से कठिन कार्य भी सिद्ध हो सकता है। यही वही चंद्रवंश था, जिसमें महाराज श्री नहुष पैदा हुए। उन्होंने कठिन से कठिन कर्त्तव्य का पालन कर इंद्र का पद प्राप्त कर लिया था। यह वही चंद्रवंश था, जिसमें वीर सहस्रार्जुन जैसे विश्व विजयी अद्वितीय वीर पैदा हुए तथा अपनी यशपूर्ण कीर्ति से संपूर्ण विश्व में अपना नाम उजागर किया और आजभी उनका नाम घर-घर सुनाई देता है। ययाति वंश का विकास इसी चंद्रवंश से हुआ। यदु वंश और पुरु वंश ययाति वंश में पले थे। यह वही चंद्रवंश था, जिसके प्राणी मात्र के उपास्य देव तथा धर्म के अद्वितीय अवलंब देवकीनंदन भगवान श्रीकृष्ण तथा भगवदंशभूत निखिल ब्रह्माण्ड के आधार, शिवजी के अवतार भगवान बलभद्र जैसे रत्नों को प्रसव करने का सौभाग्य मिला था।

परंतु यह संसार पविर्तनशील है। कोई भी प्रदार्थ चाहे वह जड़ हो या चेतन.सदा एक रूप में नहीं रहता। चाहे कोई जाति हो, चाहे कोई वंश हो, चाहे कोई व्यक्ति हो, सभी का उत्थान-पतन हुआ ही करता है। यह प्रतिदिन देखा जाता है कि भगवान भास्कर (सूर्य) प्राच्य क्षितिज से निकलकर नभ-मंडल के उच्चतम बिन्दु पर पहुँचते और अपने असंख्य किरणों को द्वारा सारे संसार को प्रकाशमान करते हैं, पर उस बिन्दु पर वे क्षणमात्र नहीं ठहर पाते। जिस गति से वे उच्चतम बिन्दु पर पहुँचते हैं, उसी गति से वहाँ से खिसक जाते हैं। इस प्रकार अपने प्रताप की चरम सीमा पर पहुँचकर धीरे-धीरे अधोगामी होते-होते अंत में पाश्चात्य क्षितिज में विलीन हो जाते हैं। तब संसार घोर अंधकार में डूब जाता है। यही दशा चंद्रवंशी की भी हुई। जिस चंद्रवंश ने एक बार सारे ब्रह्माण्ड में अपनी कीर्ति वैजयन्ती फहराई थी, जिस चंद्रवंश का पवित्र गुण-गान कविगण अपनी कविताओं में, पुराणाकार अपने पुराणों में तथा इतिहासकार अपने इतिहासों में करके अपना जन्म सफल मानते थे, वही चंद्रवंश काल-प्रेरित होकर अपने गृह-कलह का शिकार बन आपस में ही लड़-झगड़ कर मर मिटने लगा। गृह कलह के इतना उग्र रूप धारण कर लिया कि वह घर से निकलकर बाहर मैदान तथा युद्ध स्थल तक पहुँच गया। चंद्रवंशी लोग आपस में लड़ते रहे, मरते रहे और मिटते रहे। उनका गृह-कलह शांत होने की वजाए युद्ध-संग्राम में परिणत हो गया। वे वीर बांकुड़े खूब लड़े। आन की बाजी लगा दी। जान की बाजी लगा दी। परिणाम हुआ कि चंद्रवंश का मुख्य अंश कुछ को कुरुक्षेत्र में, कुछ प्रभास क्षेत्र में लड़कर मर मिटा। शेष इने-गिने जो चंद्रवंशी क्षत्रिय बच गए, उन्हीं से चंद्रवंश का नाम संसार में चलता रहा। राजकोट में पले तथा वैभव विलास का सुखानुभव करने वाले शेष चंद्रवंशियों के सामने जीवन निर्वाह की समस्या जटिल हो गई तथा जीविकोपार्जन इनके सम्मुख प्रश्न चिन्ह बनकर आ गया। कुछ चंद्रवंशी क्षत्रिय छोटे-मोटे रियासतों के अधिकारी बनकर अपना दिन काटने लगे औरकुछ स्वकुलोचित क्षत्रिय धर्म को छोड़कर वैश्य दोनों की जीविका ग्रहण करने वाले चंद्रवंशी क्षत्रिय ही आज ब्याहुत वंश के रूप में विद्यमान है, जिनका नाता आज भी प्राचीन चंद्रवंशी भगवान श्री बलभद्र के साथ प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ है। श्री कृष्ण, श्री बलभद्र आदिकों के साथ संबध जन्मता शुद्ध यदुवंशी क्षत्रिय होकर भी ब्याहुत वंशीय महाजन जाति ने आपातकाल विहित वैश्य वृत्ति धारण कर ली है।

भागवत के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि श्रीकृष्ण के प्रभास यात्रा से पहले ही स्त्रियों, बूढ़ों तथा बच्चों को शंखोद्धार नामक स्थान पर भिजवा दिया था। यद्यपि कुछ स्त्रियां सती हो गई पर गर्भवतियों का सती होना शास्त्र विरुद्ध होने के कारण वो गर्भवती रही होंगी वे सती नहीं हो पाई। अभिमन्यु आदि के महाभारत युद्ध में मारे जाने पर उत्तरा आदि गर्भवती स्त्रियों का सती न होने इसका उदाहरण है। जो हो, प्रभास क्षेत्र के विनाश कांड के बाद मरने से बचे हुए स्त्रियों, बूढ़ों एवं बच्चों को लेकर अर्जुन इंद्रप्रस्थ गए और वहाँ कृष्ण के प्रपौत्र वज्र का राज्याभिषेक किया। धर्मराज ने वज्र को शूरसेन देश का स्वामी बनाकर मथुरा में उनका अभिषेक किया। फिर प्रजापत्य यज्ञ करके अग्नियों का पान किया। युद्धोपरांत श्री बलराम (बलभद्र) के पुत्र रोमहर्षण एवं पौत्र उग्रश्रवा के जीवित बच जाने के अनेक प्रमाणों का भी उसमें उल्लेख है।

इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि द्वारका वासी यदुवंशी एकदम निर्वीज नहीं हुए। पूर्वोक्त हतशेष यदुवंशियों के द्वारा वह वंश वृक्ष फिर पनम गया, जिसकी एक शाखा ब्याहुत जाति है।

क्षत्रियत्व की निशानी

भगवान बलभद्र क्षत्रिय थे, इस बात से सभी लोग भलीभांति अवगत उसकी संतान ने आपातकाल की स्थिति में अपने क्षत्रिय वृत्ति को त्याग वैश्य वृत्ति को किस प्रकार अपनाया, इसका विस्तृत वर्णन 'मूल से क्षत्रिय कर्म वे वैश्य' शीर्षक के अंतर्गत किया गया है। आज की कलवार जाति जो कभी क्षत्रिय थी, वैश्य अपनाकर वैश्य भले ही बन गए हैं, मगर उनके संस्कार और नित्य प्रति के कर्मों में पूर्णरूपेण क्षत्रियत्व की निशानी झलकती हे। इसे व्यक्त करने के लिए क्षत्रिय के शास्त्र विहित कर्मों पर प्रकाश डालना जरूरी है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के 98वें अध्याय में क्षत्रिय के जो कर्म बताए हैं, ये इस प्रकार है:

शौर्य तेजो युद्ध चात्यपलायनम।

दानमीश्वरभावश्य क्षात्रकर्म स्वभावजम ।।

अर्थात वीरता, तेज (प्रताप), धैर्य (विपत्ति काल में भी न घबराना), युद्ध में पीठ न दिखाना, दान देना और ईश्व भाव (मालिकपना) ये क्षत्रिय के स्वभाव सिद्ध कर्म है।

इन गुणों में से कुछ ही को छोड़कर शेष सारे कलवार जाति में विद्यमान है। वैश्य वृत्ति अपना लेने के कारण इस जाति ने वीरता एवं तेज के कर्म को छोड़, धैर्य, चातुर्थ्य, दान एवं ईश्वर भाव के गुणों को अपने में संयोए रखा है। अति प्राचीन काल से ये क्षत्रिय आज तक वैश्य जीविका करते आए, पर इनका स्वभाव प्राकृत वैश्य जैसा नहीं हो सका, वे जैसे-जैसे धनाढ्य होते जाते हैं, वैसे-वैसे उनके चित की प्रवृत्ति वाणिज्य-व्यापार की ओर झुकती जाती है। पर वैश्य रूपधारी इन क्षत्रिय जातियों के पास जहाँ कुछ धन इकट्ठा हुआ कि इनका रूख भूमि पर आधिपत्य अर्थात जमींदार की ओर फिरता है। उनको बनियोटी नहीं भाती। प्राकृत वैश्व स्वभाव से भीरू, मधुर भाषी और असहिष्णु होते हैं, पर इन्हें ये गुण अच्छे नहीं लगते। ये शान और दबदबा को ही अधिक पसंद करते हैं। यही कारण है कि इनमें राजा, जमींदार, तालुकेदार, राजपुरुष तथा उन्य उच्च स्तर के सत्ताधारी व्यक्ति होते रहे हैं। इनके मुकाबले में प्राकृत वैश्य निस्तेज से मालूम पड़ते हैं।

मनु अपनी स्मृति के दशम अध्याय में कहते हैं

शास्त्रास्त्रभृत्वां क्षत्रस्य वणिक पशु कृषिविंशः।

आजीवनार्थ धर्मस्त दानमध्ययनयजिः।।

प्रजा की रक्षा के लिए खड्ग (कृपाण आदि) शस्त्र और वाण आदि अस्त्र धारण की रक्षा की तथा वाणिज्य पशुपालन और खेती वैश्य की जीविकाएं हैं। दान देना, वेदों का पढ़ना और यज्ञ करना क्षत्रिय तथा वैश्य के धर्म कार्य हैं। ये सभी जीविकाएं अनापतकाल की है।

मनु ने आगे कहा है कि आपातकाल आ जाने पर किसी भी वर्ग को अपने से उच्च वर्ण की जीविका करने का अधिकार नहीं है तथा इस नियम का उल्लंघन करने वाले को राजा द्वारा सर्वस्व छीन देश से निकाल दिए जाने का दंड दिया जाना चाहिए। अब: अपने से उच्च वर्ग की जीविका धारण करने का साहस कोई भी वर्ण नहीं करता था। क्षत्रिय जाति भला इसका अपवाय कैसे हो सकती थी? आपातकाल की स्थिति आ जाने पर क्षत्रियों कलवार जाति ने खेती, वाणिज्य और महाजनी पेशा अपनाया। कलवार जाति जन्म से क्षत्रिय है। इस जाति के जन्म से वैश्य होने का कहीं भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है, मगर क्षत्रिय होने के अनेक प्रमाण प्रत्यक्ष है। यह कलवार जाति द्वारका निवासी युदवंशियों की संतान है।

इसके अतिरिक्त भी कलवार जाति के ऐसे प्रतीक है, जो क्षत्रिय होने के सबल प्रमाण है। जिस प्रकार जनेऊ (यज्ञोपवीत) धारण करना हर क्षत्रिय के लिए आवश्यक है, उसी प्रकार कलवार जाति में भी जनेऊ धारण करने की प्रभा चली आ रही है। वैसे ये लोग नियमित रूप से जनेऊ धारण नहीं करते, मगर विवाह के पूर्व निश्चित रूप से बलभद्र की प्रतिमा के चरणों में जनेऊ छुआकर लड़के को पहनाया जाता है। यह कार्य शास्त्र अनुकूल पद्धति से किया जाता है।

ध्यान देने योग बातें ये भी है कि कलवार जाति के घरों में हर मुख्य पर्व जैसे होली, दशहरा, श्रावणी, घरी आदि अवसरों पर खड्ग (तलवार) की पूजा होती है। यह प्रथा इनके यहाँ प्राचीनकाल से चली रही है। खड्गधारी की संतान ही खड्ग की पूजा कर सकती है। खड्ग धारण करना क्षत्रिय के शौर्य तेज की निशानी है। ये लोग खड्ग को अपने पूर्वज का अस्त्र मानते हैं। कुल देवता की पूजा में खड्ग पूजा अनिवार्य मानी जाती है। कलवार जाति में घोड़े की सवारी का प्रचलन अधिक पाया जाता है। इसके पूर्वज रणक्षेत्र में घोड़े का प्रयोग करते थे। क्षत्रिय वृत्ति त्याग देने पर तब से व्यवसाय हेतु सामान ढोने एवं सवारी के रूप में ही इनका प्रयोग करते थे। आज सुसूर गाँवों में कलवार वंश के लोग ही घोड़े पालते हैं। आज के ये बनिए कभी के क्षत्रिय ही हैं।

कुलरत्न डा. काशी प्रसाद जायसवाल

डा. के.पी. जायसवाल एम.ए, डी.-लिट-बार-एट-ला विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार, पुरातत्व के प्रकांड पंडित संस्कृत, हिंदी, नेपाली, अंग्रेजी, लेटिन, चीनी, फ्रेंच, जर्मनी इत्यादि 14 भाषाओं के श्रेष्ठ विद्वान थे, इनका हिंदू राजतंत्र प्रसिद्ध इतिहास है। -- संपादक

टाइम्स आफ इंडिया के 31 अगस्त, 1960 के अंक में प्रकाशित एक समाचार से विदित हुआ है कि भारत सरकार ने सन् 1961 में कुछ विशिष्ट महापुरूषों के सम्मान में विशेष डाक टिकटों को जारी करने का निर्णय लिया है। उन महापुरूषों में प्रसिद्ध इतिहासकार डा.काशी प्रसाद जायसवाल का भी नाम है। प्रसिद्ध उपन्यासकार श्री अमृतलाल नागर ने कहा है कि यदि मुझे पीर मोहम्मद चिश्ती की भांति तीन घंटे की बादशाहत मिल जाए, तो मैं गाँव-गाँव के, मंदिरों में डा. काशी प्रसाद जायसवाल की मूर्तियाँ स्थापित करने का आदेश प्रसारित कर देँ। धन्य है मिर्जापुर और धन्य है जायसवाल जाति, जिनको डा. काशी प्रसाद जायसवाल ऐसे सपूत देश को ही नहीं, समस्त मानव जाति को देने का गौरव प्राप्त किया है। डा. काशी प्रसाद जायसवाल मिर्जापुर के प्रसिद्ध रईस साहु महादेव प्रसाद जायसवाल के पुत्र थे साहु महादेव प्रसाद तथा पं. मदन मोहन मालवीय का जन्म एक ही दिन हुआ था। उनमें परस्पर धनी मैत्री थी।

डा. काशी प्रसाद जायसवाल का जन्म 27 नवंबर, 1881 को झालदा में हुआ था। नालंदा जिला मानभूमि (प. बंगाल) में है। उस समय बिहार में था। मिर्जापुर में उनका लालन-पालन हुआ। डा. काशी प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था घर में ही की।

प्रत्येक विषय के अलग-अलग अध्यापक नियुक्त किए गए। घर पर संस्कृत पढ़ाने के लिए एक पंडित जी भी नियुक्त किए गए। मिर्जापुर के लंदन मिशन हाई स्कूल में दाखिला कराया गया।

19 वर्ष की अवस्था में एंट्रेंस परीक्षा उत्तीर्ण करके आगे की शिक्षा प्राप्त करने आप काशी गए। यहां आपना क्वींस कालेज में प्रवेश लिया। पिता ने मित्रों की सम्मति से इनकी बैरिस्टरी पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजा। चार वर्ष वहां रह कर आपने सन 1909 में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास में ससम्मान एम.ए. की डिग्री प्राप्त की और साथ ही मीडिल टेम्पुल से बैरिस्टरी की भी उपाधि प्राप्त किया।

उसी समय डाक्टर साहब चीनी भाषा में भी एक विशेष परीक्षा उत्तीर्ण किया। इस विषय के एक मात्र आप ही विद्यार्थी थे। वहां रहकर जायसवाल जी ने चीन-जापान में संस्कृत ग्रंथ' शीर्षक लेख लिखकर सरस्वती में प्रकाशनार्थ भेजा। वह उग्र क्रांतिकारी बन और जीवन भर इस पथ के पथिक रहे।

होनहार विरवान के होत चिकने पात।' डा.काशी प्रसाद जायसवाल बाल्यकाल से से ही प्रतिभाशली थे। क्या-पढ़ने-लिखने में, क्या व्यावहारिक कार्यों में, क्या घर के व्यवसाय में भी स्थान में इनकी प्रखर प्रतिभा की छाप थी। जीवन के क्षेत्र में वह चढ़ते सूर्य की भांति चढ़े, जिसके प्रकाश में देश के मनीषियों ने ज्ञान का स्वरूप देखा और मानव को पहचाना।

डा. साहब ने अपने रुचि एवं प्रतिभा का सदुपयोग भारत के अतीत कालीन इतिहास की खोज में किया। शिलालेखों, सिक्कों, प्राचीन हस्त लिखित प्रतियों तथा ग्रंथों के अध्ययन में उन्होंने अपने आपको समर्पित किया। इनकी खोजों के आगे विश्व के बड़े-बड़े विद्वान नतमस्तक हो गए।

उन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति की खोज की, काल निर्णय, सिक्कों के अध्ययन एवं शिला लेखों के संबंधों में प्रामाणिक रूप से प्रकाश डाला। सन् 1915 में भारतीय इतिहास के शोध, अन्वेषण एवं अनुसंधान के लिए जायसवाल जी ने 'बिहार उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी' की नींब डाली, जो आगे चलकर 'डा.काशी प्रसाद जायसवाल रिसर्च इंस्टीट्यूट' के नाम से प्रसिद्ध हुई और आज भी उसके माध्यम से बहुत से शोध कार्य होते रहते हैं।

पटना हाई कोर्ट की स्थापना के पश्चात जब जायसवाल जी पटना आए तो वहां वकालत और इतिहास की साधना करने लगे। अपने समय में वह शायद संसार के सबसे बड़े अनुसंधानी थे। 'बिंसेंट स्मिथ' ने भारत का जो इतिहास लिखा था, उसके बाद के संस्करणों में बराबर कुछ न कुछ परिवर्तन होता गया, क्योंकि जायसवाल जी के अनुसंधानों का क्रम जारी था और संसार के सामने बराबार वे कुछ ऐसे तथ्य रखे जा रहे थे, जो बिल्कुल नतून और अखंडनीय थे।

उन्होंने मगध क्षेत्र वैशाली के लिच्छवियों के संघ का उल्लेख किया तथा इस बात पर जोर दिया कि आजकल की ग्राम पंचायत प्राचीन भारत के संघ शासन की अवशेष मात्र है। इन लेखों ने देश-विदेश के विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया।

सन 1921 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने आपको 'टैगोर ला लेक्चरर' नियुक्त किया। इस भाषण माला के अंतर्गत आपने 'मनु एवं यज्ञवल्कय' पर व्याख्यान दिए, जिनका प्रकाशन बाद में हुआ। इनका अध्ययन विश्व के समस्त विश्वविद्यालयों में किया जाता है। इस पर कलकत्ता विश्वविद्यालय ने आपको 'डाक्टर आफ ला' की उपाधि से विभूषित किया।

सन् 1924 में जब डाक्टर साहब की 'हिंदू पालिटी' प्रकाशित हुई, तब आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. थॉमस बोडेन ने रायल एशियाटिक सोसाइटी', लंदन के जर्नल में जायसवाल जी को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए लिखा था कि जायसवाल जी ने बहुत दिनों से चिंतनीय विषय का प्रकाशन किया है।

भारतीय मुद्राओं की खोज के संबंध में भी जायसवाल जी का कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। जून 1935 में 'रायल एशियाटिक सोसाइटी' लंदन में मौर्यकालीन मुद्राएं' विषय पर भाषण देने के लिए आमंत्रित करके सम्मान प्रदान किया गया। आप दो बार अ.भा. मुद्राशास्त्र सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गए। प्राचीन भारत में छोटे से लेकर बड़े सिक्के सोने के ही होते थे विदेशी लोग यहां से मिर्च और लौंग ले जाकर उसके बराबर सोना दिया करते थे। सिक्कों के अध्ययन से ही सिद्ध किया था कि भारत में अतुलनीय स्वर्ण का भंडार था। इसलिए गुप्तकाल को इतिहास में स्वर्ण युग कहा गया है। सचमुच वह भारत देश को प्यार करते थे और उसका रहस्य जानने के लिए स्वप्न देखा करते थे। जिन खोज पूर्ण कार्यों में उन्हें प्राचीन दुनिया और नई दुनिया में भी एक विश्व विख्यात व्यक्ति बनाया।

प्रसिद्ध इतिहासकार श्री आर.डी. बनर्जी के अनुसार जायसवाल जी ने अनेक शिलालेखों तथा स्तम्भ लेखों का अध्ययन करके भारतीय इतिहास के संबंध में ऐसे-ऐसे तथ्य खोज निकाले, जिसका उस समय तक किसी को पता भी नहीं था।

आज सारे विश्व में डाक्टर काशी प्रसाद जायसवाल का नाम उजागर है। उनकी गणना सर्वत्र विश्व विख्यात महापुरूषों की श्रेणी में की जाती है। इसका मूल कारण उनके तीन वर्षों के प्रयलों के फलस्वरूप उनके इतिहास ग्रंथ हैं। सर गुरुदास बनर्जी ने इनकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि इनके समान योग्य व्यक्ति अत्यंत दुष्कर है।

नि:संदेह डा. काशी प्रसाद जायसवाल इतिहास के धुरंधर विद्वान, प्राचीन लिपि मर्मज्ञ एवं महान पुरातत्व वेता थे। अपनी इसी योग्यता के कारण उन्होंने देश और जाति का जो उपकार किया, वह सदा अविस्मरणीय रहेगा। आप अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित थे तथा भारत विद्या के प्रकांड पंडितों में आप सर्वश्रेष्ठ समझे जाते थे।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद के अनुसार उनका झुकाव प्राचीन भारत के इतिहास के अन्वेषण की ओर था। कानून का व्यवसाय तो उन्हें विवशतावश करना पड़ा।

कविवर टैगोर जायसवाल जी की महानता तथा प्रेरणादायक व्यक्तित्व से बड़े प्रभावित थे तथा उनके प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे। उनकी यह अभिलाषा सदैव रहती थी कि जायसवाल जी उनकी कविता की प्रशंसा में कुछ लिखें।

राष्ट्र कवि श्री रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक 'संस्मरण एवं श्रद्धांजलियाँ' में 'पुण्य श्लोक जायसवाल जी' निबंध में डाक्टर काशी प्रसाद जायसवाल को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा, 'जब जायसवाल जी मेरे जीवन में आए उससे पूर्व किसी भी बड़े आदमी की दृष्टि मुझ पर नहीं पड़ी थी और यह अच्छा ही हुआ कि मेरे सबसे प्रथम प्रशंसक जायसवाल जी हुए क्योंकि अब जब मैं सूर्य, चंद्र, वरुण, कुबेर, बृहस्पति, शुक्र, इंद्र, शची और ब्राह्माणी सबके प्रेम और प्रोत्साहन का स्वाद जान चुका हूँ, तब यह साफ दिखलाई देता है कि उनमें से कोई भी वैसा नहीं था जैसे जायसवाल जी थे।

विलायत में अध्ययन करते समय काशी प्रसाद जायसवाल ने खोज संबंधी ऐसे जोरदार लेख लिखे कि बड़े-बड़े इतिहासज्ञों के दाँत खट्टे हो गए और जायसवाल जी को बुलाकर अपनी-अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। डा. शिलव्याँ लेबी फ्रांस के रहने वाले प्रकांड संस्कृतज्ञ पंडित थे। जब उन्होंने उनके लेख पढ़े तो पत्र लिखकर उनको अपनी श्रद्धांजलि में अर्पित की और उन्हें फ्रांस आने का स्नेहपूर्ण निमंत्रण भी दिया।

ऐसे महान विश्व प्रसिद्ध डा. काशी प्रसाद जायसवाल के हृदय में जाति के प्रति भी विमल प्रेम था। उन्होंने जाति के इतिहास को भली-भांति समझा था। जाति में जागरण लाने तथा उसके संगठित करने का आजीवन प्रयास करते रहे।

उन दिनों जायसवाल जाति की सामाजिक स्थिति अत्यंत गिरी हुई थी। एक ऐसे वातवरण बना हुआ था, जिसमें अन्य सवर्ण जातियाँ इसे हीन समझती थी। विद्या, धन, वैभव संपन्न होने पर भी उसे समाज में वह सम्मान प्राप्त न था, जिसकी कामना सभ्य जगत में की जाती है।

वह जाति की महासभा के सच्चे पथ प्रदर्शक बने और जातीय कार्यों में रुचि ली। उन्होंने महासभा के अधिवेशनों में जाकर जाति बंधुओं को उत्थान के हेतु उत्प्रेरित किया। महासभा के माध्यम से जाति में जागृति लाने का श्रेय जायसवाल जी को ही है। आपने ही यह खोज निकाला कि हमारी जाति क्षत्रिय है और इसे समाज में उनके अनुरूप सम्मान प्राप्त होना चाहिए।

महासभा के माध्यम से सबने अपने आपको क्षत्रिय घोषित किया और इसके अनुरूप समाज में सम्मान प्राप्त करने के लिए संघर्ष के क्षेत्र में कदम बढ़ाया। आज समाज में हमें वांछित सम्मान प्राप्त है। इसका श्रेय डा. काशी प्रसाद जायसवाल को ही है।

तत्कालीन कलकत्ता के प्रसिद्ध वकील श्री नारायण चंद्र साहा को आर्थिक सहायता प्रदान कर आपने उन्हें जातीय साहित्य के प्रचार व प्रसार में अपना अमूल्य सहयोग दिया। जाति के निर्धन छात्रों को छात्रवृत्ति एवं अन्य आवश्यक सहायता देकर उन्हें सुशिक्षित बनाया आपने जाति की महासभा का विधान बनाया जो अब तक अपरिवर्तित है।

अपने 'कलवार गजट' पत्रिका का प्रकाशन करवाया और उसका संपादन स्वयं किया। आपके कारण ही जायसवाल जाति का नाम संसार में विदित हुआ। श्री मिश्री लाल जायसवाल विश्व साइकिल पर्यटक ने एक बार बताया था कि जर्मनी में डा. काशी प्रसाद जायसवाल के नाम की एक सड़क है। जायसवाल जाति का इससे बढ़कर सम्मान और क्या हो सकता है?

आप बड़े उदार और दानी थे। चुपके-चुपके दान देने में आप अपना गौरव समझते थे। प्रायः उनके पास परिस्थिति के मारे संभ्रांत कातर व्यक्ति आते थे, जिन्हें वह चुपके-चपके पर्याप्त सहायता किया करते थे, किसी गरीव छात्रों के लिए उनके हृदय में बड़ी दया थी। उनकी स्नेह छाया में पल्लवित होकर और पोषण प्राप्त करके न जाने कितने दीन-हीन छात्र उच्चतम शिक्षा प्राप्त करके आज उत्तरदायित्व पूर्ण पदों को सुशोभित कर रहे हैं। वह सबका आदर और सम्मान करते थे तथा महान कार्यों के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन देते थे। महान पंडित राहुल सांस्कृत्यायन, राष्ट्रकवि, दिनकरजी मोहन लाल महतो आदि अनेक विद्वानों के डा. साहब आश्रय स्थल थे। उनके कारण ही वे महान बने।

जायसवाल जी एक महान देश भक्त थे। इस संबंध में दिनकर जी ने अपने निबंध में लिखा है, "जायसवाल जी आरंभ से ही तेजस्वी देश भक्त थे, अतएव अंग्रेजों ने उनको नौजवानों के बीच रखा जाना पसंद नहीं किया।" स्वतंत्र वीर विनायक दामोदर सावरकर भी कहा करते थे कि जायसवाल जी बड़े ही देश भक्त, साहसी और उच्च कोटि के विद्वान थे।

जायसवाल जी वास्तव में जिंदा दिल इंसान थे वह दूसरों की नजरों में महान थे और स्वयं सदा महत्ता की ओर ध्यान रखते थे। आप सरल स्वभाव के मिलनसार व्यक्ति थे।

उनके इन्हीं गुणों एवं महान कार्यों से प्रभावित होकर एच.के. जायसवाल सभा, प्रयाग ने अपने कालेज का नाम डा. काशी प्रसाद जायसवाल इंटर कालेज तथा बेसिक स्कूल का नाम डा. काशी प्रसाद जायसवाल बेसिक स्कूल रखा, जिससे उनका नाम उज्ज्वल हो रहा है। डा. काशी प्रसाद जायसवाल ऐसे ही महापुरूषों में हैं। इन्होंने निश्छल और स्वार्थ रहित भावना से राष्ट्र और जाति की उन्नति में सफल योगदान किया। इसके लिए देश और जाति और उनकी सदा ऋणी रहेगी।

डा. काशी प्रसाद जायसवाल ने जीवन के छप्पन बसंत एवं शरद की सुषमा का आनंद प्राप्त किया। अधिक कार्यभार के कारण उनका स्वास्थ्य अब पूर्ववत न रहा। वह घातक कारबंकल फौड़े से ग्रसित हुए। तीन महीने तक इसके प्रकोप एवं आयात से निरंतर संघर्ष करते रहे। लेकिन विधि का विधान टाले नहीं टलता। 4 अगस्त 1937 को उन्होंने इस असार संसार से प्रस्थान किया। उनकी यश: सुरभि सर्वत्र व्याप्त है और प्रवुद्ध मानव को उत्साह और प्रेरणा से भरती रहती है।

अंत में,

यस्य स्मरण मात्रेण जन्म संसार बन्धनात्।

बिमुच्येत् तस्मै जी जायसवाल नमो नमः ।।

अर्थात जिनके स्मरण मात्र से जन्म और संसार के बंधन से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है, उन डा. काशी प्रसाद जायसवाल को हम बार-बार नमस्कार करते हैं।

लेखक :

श्री राम मनोहर जायसवाल

जोरहट (असम)

Mobile: 9435090271